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जैन दर्शन में जीव का स्वरूप : ५५
चार्वाक को छोड़कर सभी भारतीय दर्शनों ने आत्मा को चेतन, कर्ता, भोक्ता आदि स्वीकार किया है। जैन दर्शन में भी आत्मा को कर्ता-भोक्ता माना गया है। साथ ही यह भी स्वीकार किया गया है कि वह अन्तहीन और अन्तरहित है। जब हम कहते हैं कि प्रत्येक आत्मा कर्ता, भोक्ता और चेतन है तो इस विचार के पोषक के रूप में वर्गसॉ कभी याद आती है, क्योंकि उसने भी यह स्वीकार किया है कि प्रत्येक आत्मा एक पृथक् तत्त्व है, नित्य है, अनिष्पन्न है, अविनश्वर है और अदृश्य है । वह पूर्ण अनुभव करता है, स्वतंत्र है और द्रष्टा है। जैन दर्शन में मान्य जीव के स्वरूप को प्रतिपादित करते हुए डॉ० चन्द्रधर शर्मा ने कहा है- 'जैन दर्शन जीव को ज्ञाता, कर्ता और भोक्ता मानता है। ज्ञान जीव का स्वरूप गुण है, अत: वह स्वाभाविक रूप से ज्ञाता है। जीव कर्मों का वास्तविक कर्ता है और इसलिए कर्मफलों का वास्तविक भोक्ता भी है। जीव अस्तिकाय द्रव्य है, किन्तु उसका आकाश में पुद्गल के समान विस्तार नहीं होता। जीव भौतिक शरीर, इन्द्रिय, मन आदि से भिन्न है। सांसारिक जीवों के शरीर, इन्द्रिय और मन होते हैं, जिनसे इन्हें लौकिक ज्ञान में सहायता मिलती है, किन्तु वस्तुतः शरीर, इन्द्रिय, मन आदि पौद्गलिक हैं, कर्म द्वारा स्थापित आवरण हैं जो जीव के नैसर्गिक ज्ञान को अवरुद्ध करते हैं और उसके अपरोक्ष ज्ञान के बाधक हैं। "
जीव शाश्वत है - गौतम ने भगवान् महावीर से पूछा - लोक में शाश्वत क्या है ? भगवान महावीर ने संक्षेप शैली में कहा- जीव और अजीव ! ये दोनों पदार्थ शाश्वत हैं, क्योंकि उत्पाद - व्यय और ध्रौव्य इस त्रिपदी के आधार पर जीवों की शाश्वतता सिद्ध है। पूर्व अवस्था का त्याग एवं अपर अवस्था की प्राप्ति क्रमशः व्यय और उत्पाद है। पहले पर्याय का नाश एवं नये पर्याय की उत्पत्ति - इस परिवर्तित स्थिति में भी चैतन्यमय असंख्यात प्रदेशी जीवद्रव्य की सत्ता यथावत् बनी रहती है। ठा में जीव को इसीलिए शाश्वत कहा है, क्योंकि जीव पहले भी था, वर्तमान में भी है और आगे भी रहेगा। वह ध्रुव, नित्य, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, स्थिर और नित्य है। तीनों कालों में जीव रूप में विद्यमान रहता है। जीव कभी अजीव नहीं होता, यही उसकी शाश्वतता है।
जीव अमूर्त है- अमूर्त अर्थात् जिस पदार्थ में स्पर्श-वर्ण-रस-स्पर्शादि भौतिक गुणों का अभाव हो, उसे अमूर्त कहा जाता है । जीव में भी स्पर्शादि भौतिक गुण नहीं होते। इन्द्रिय और मन के द्वारा अग्राह्य अमूर्त जीव जब भौतिक गुण 'कर्म' (ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र, अन्तराय) से बंधा रहता है, तब जीव मूर्त्तवत् दिखाई देता है । " वास्तव में कर्माधीन जीव भी साक्षात् दिखाई नहीं देता, उसकी प्रवृत्ति से ही आभास होता है।
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