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________________ ५४ : श्रमण, वर्ष ५९, अंक ३/जुलाई-सितम्बर २००८ अस्तित्व शाश्वत होते हुए भी कर्मबद्ध होने से परिवर्तनशील है। उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य की त्रिपदी पदार्थ की शाश्वतता उजागर करती है। जीव का स्वरूप जैन दर्शन के अनुसार विश्व दो तत्त्वों की संयुति है - १. जीव और २ अजीव। इनको विस्तार की दृष्टि से अनेक भेदों में देखा जा सकता है। तात्पर्य यह है कि सम्पूर्ण दृश्य जगत् इन दो तत्त्वों के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। 'जीव-सजीवत् जीवति जीवितष्यतीति जीवः' अर्थात् जो जीता था, जीता है और जीता रहेगा, उसे जीव कहते हैं। सांसारिक दृष्टि से पांच इन्द्रिय, श्वासोच्छवास, आयुष्य, मन-वचन-काय, इन दस प्राणों में जीव जीवित रहता है।' जीव का लक्षण : बोधगम्यता आत्मभूत और अनात्मभूत की दृष्टि से जीव के दो प्रकार से लक्षण दृष्टिगोचर होते हैं। आत्मभूत, वह लक्षण है जो पदार्थ अथवा वस्तु के साथ संलग्न रहता है, वस्तु में निहित होता है, जब कि अनात्मभूत लक्षण वस्तु के बाहर रहकर अपनी पहचान बनाता है। जिस प्रकार ज्ञान और दर्शन जीव का आत्मभूत लक्षण है, उसी प्रकार उसका अनात्मभूत लक्षण है। . तत्त्वार्थसूत्र में जीव का लक्षण ‘उपयोग' बताया गया है। उपयोग का अर्थ होता है - बोधगम्यता यानी चेतना की प्रवृत्ति। यह लक्षण समस्त जीवों में निश्चित रूप से पाया जाता है। बोधरूप व्यापार ही उपयोग है। उपयोग द्वारा चेतना यानी जीव की पहचान होती है। बोध का कारण चेतन शक्ति है। चेतन शक्ति आत्मा में ही होती है, जड़ में नहीं। आत्मा में अनन्त गुण-पर्याय हैं, उनमें मुख्य उपयोग ही है। जानने की शक्ति समान होने पर भी जानने की क्रिया सब आत्माओं में समान नहीं होती। यहाँ जीव के विभेदक गुण को प्रकाशित किया गया है। जैसे- मनुष्य का विभेदक गुण विवेक है, उसी प्रकार जीव का विभेदक गुण उपयोग है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य और उपयोग ये सभी जीव के लक्षण हैं। संक्षेप में इन लक्षणों को दो विभागों में बांटा जा सकता है - १. वीर्य, २. उपयोग। चारित्र और तप को वीर्य में एवं ज्ञान और दर्शन को उपयोग के अन्तर्गत रखा जा सकता है। यद्यपि जीव का लक्षण उपयोग ही सार्थक प्रतीत होता है, क्योंकि वह ज्ञान, दर्शन, सुख-दुःख से जाना जाता है। गति करना, घटना, बढ़ना, फैलना जीव के लक्षण नहीं बन सकते। ये सभी क्रियायें अजीव में भी देखी जाती हैं। ज्ञान-दर्शन की प्रवृत्ति जीव-अजीव की भेद -रेखा है।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525065
Book TitleSramana 2008 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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