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पाश्चात्य एवं जैन मनोविज्ञान में मनोविक्षिप्तता एवं उन्माद : ५१
भूत, पिशाच, यक्ष, देव आदि को कारण बताया गया है, (२) मोहनीयजन्य उन्माद मोहनीय कर्म के कारण होता है। पाश्चात्य मनोविज्ञान में उन्माद के प्रकार तो बताये गये हैं, परन्तु वे प्रकार उन्माद की तीव्रता और मन्दता पर आधारित हैं, जबकि जैन मनोविज्ञान में उन्माद के प्रकार, उसके कारणों पर आधारित हैं। जिस तरह जैन मनोविज्ञान में भूत, पिशाच और कर्म आदि को उन्माद के कारण के रूप में स्वीकार किया गया है, उस तरह की चीज पाश्चात्य मनोविज्ञान में बिल्कुल नहीं है।
जहाँ तक चिकित्सा की बात है तो जैन मनोविज्ञान में जो उपचार बताये गये हैं वे बहुत सामान्य और अविकसित हैं, जबकि पाश्चात्य मनोविज्ञान में मनोविकृति को दूर करने के लिए 'साइकोलॉजिकल थेरापी' आदि वैज्ञानिक उपचार किये जाते हैं। सन्दर्भ: १. एस्क्विरोल, जे० ई० डी०, डेस मैलेडीज़ मेन्टेल्स, पेरिस : बेलियेरे,
१९३८, २. मखीजा एण्ड मखीजा, असामान्य मनोविज्ञान : पृ० ३०७ ३. रागेण वा भएण व, अहवा अवमाणिया णरिंदेण।
एतेहिं खितचित्ता, वणिताति परूविता लोए।। बृहत् कल्पसूत्रम्, भाग-६, सम्पा०-चतुरविजय-पुण्यविजयजी, प्रका०- श्री जैन आत्मानन्द सभा,
भावनगर, १९४२, गाथा ६१९५ ४. वही ५. भयओ सोमिलबडुओ, सहसोत्थरिया य संजुगादीसु।
णरवतिणा व पतीण व, विमाणिता लोगिगी खेत्ता।। वही, ६१९६, ६. रागम्मि रायखुड्डी, जड्डाति तिरिक्ख चरिय वातम्मि।
रागेण जहा खेत्ता, तमहं वोच्छं समासेणं।। -वही, ६१९७, ७. छक्कायाण विराहण, झामण तेणे निवायणे चेव।
अगड विसमे षडेज्ज व, तम्हा रक्खंति जयणाए।। -वही, ६२१०, ८. वही, सूत्र ११, गाथा ६२४१, ९. लाभमएण व मत्तो, अहवा जेऊण दुज्जए सत्तू।
दित्तम्मि सायवाहणों तमहं वोच्छं समासेण।। -वही, ६२४३, १०. व्यवहारभाष्य, २१/२२-२५,
निशीथभाष्यपीठिका-१७३,
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