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________________ ५० : श्रमण, वर्ष ५९, अंक ३/जुलाई-सितम्बर २००८ (२) फिर उन्हें देखने के लिए लालायित होता है। (३) उसकी प्राप्ति नहीं होने पर दीर्घ निःश्वास डालता है। (४) तत्पश्चात् कामज्वर उत्पन्न हो जाता है। (५) अग्नि में जले हुए व्यक्ति के समान पीड़ित हो जाता है। (६) खाने-पीने में अरुचि हो जाती है। (७) कभी-कभी मूर्छा भी आ जाती है। (८) वह उन्मत्त होकर बड़बड़ाने लगता है। (९) काम के आवेश में उसका विवेकज्ञान लुप्त हो जाता है। (१०) कभी-कभी मोहावेशवश उसकी मृत्यु भी हो जाती है। उन्मत्तता दूर करने के उपाय जैन साहित्य में उन्मत्तता दूर करने के उपायों का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है, फिर भी कहीं-कहीं संकेत रूप में वर्णन किया गया है। यक्षावेश उन्माद का सुखपूर्वक वेदन और विमोचन हो जाता है, किन्तु मोहजन्य उन्माद दुःखपूर्वक वेद एवं मोच्य होता है। यक्षावेश उन्माद का सुखपूर्वक वेदन इसलिए होता है कि वह अधिक से अधिक एकमाश्रयी होता है जबकि मोहनीय उन्माद का अर्थ भवों तक चलता है। अतः इसे छुड़ाना बड़ा ही कठिन होता है। विद्या, मंत्र, तंत्र, इष्टदेव या अन्य देवों द्वारा भी उसका छुड़ाया जाना अशक्य-सा होता है। यक्षावेश उन्मत्त व्यक्ति को बेड़ी, बन्धन आदि में डाल देने से वह वश में हो जाता है, किन्तु मोहनीय जन्य उन्माद से पीड़ित व्यक्ति को सर्वज्ञ या मंत्रवादी महापुरुष भी ठीक नहीं कर सकता है। तुलना जैन मनोविज्ञान एवं पाश्चात्य मनोविज्ञान दोनों में मन की असामान्य स्थितियों के विवेचन हुए हैं। दोनों ने ही यह माना है कि चित्त या मन में जब किसी कारण से विकृति आ जाती है तब व्यक्ति के व्यवहार सामान्य लोगों के व्यवहार से भिन्न हो जाते हैं। जैन मनोविज्ञान ने दो प्रकार के चित्त की चर्चा की है-क्षिप्तचित्त तथा दीप्तचित्त। क्षिप्त चित्त में राग, भय, अपमान आदि कारण होते हैं। दीप्तचित्त में अधिक मान, लाभ, जय आदि काम करते हैं। पाश्चात्य मनोविज्ञान मनोविक्षिप्त रोगी में समस्त मनोविकारों को समाहित करता है। आगे चलकर उसी के एक प्रकार के रूप में उन्माद को प्रस्तुत करता है। किन्तु जिस प्रकार पाश्चात्य मनोविज्ञान में मनोविक्षिप्तता का विस्तारपूर्वक विश्लेषण हुआ है, उस तरह जैन मनोविज्ञान में विवेचन नहीं हो पाया है। जैन मनोविज्ञान में उन्माद दो प्रकार के माने गये हैं- (१) यक्षावेश उन्माद जिसमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525065
Book TitleSramana 2008 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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