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________________ पाश्चात्य एवं जैन मनोविज्ञान में मनोविक्षिप्तता एवं उन्माद : ४७ उपचार ( ट्रीटमेंट) उन्माद के रोगियों का उपचार करते समय चिकित्सक का मुख्य उद्देश्य रोगी की अति सक्रियता (हाइपरएक्टिविटी) को कम करना है। इस उद्देश्य के लिए विभिन्न प्रशान्तक (ट्रैक्विलाइजर्स) और मनस्तापरोधक औषधियाँ उपलब्ध हैं। कुछ रोगियों के लिए विद्युत - आघात चिकित्सा (एलेक्ट्रो शाकथेरापी) और सुषुप्ति चिकित्सा (नारको थेरापी) आवश्यक हो जाती है । सुषुप्ति चिकित्सा द्वारा रोगी को लम्बे समय तक सोने दिया जाता है । यद्यपि इन उपचारों द्वारा उन्माद - चक्र (मैनिक साइकिल ) की अवधि कम नहीं होती तथा उसकी तीव्रता को कम करके उसकी सक्रियता का उपयोग निर्माणात्मक कार्यों के लिए किया जा सकता है। उन्माद विकार के इलाज के लिए रोगी को अस्पताल में भी दाखिल करा दिया जाता है ताकि उसकी देखभाल की जा सके। इस प्रकार के विकार के इलाज में रोगी को बाह्य उद्दीपन के प्रभाव से बचाना आवश्यक होता है। इसके साथ-साथ रोगी का विश्वास प्राप्त करना चाहिए और अनावश्यक अवरोध तथा चिड़चिड़ाहट पहुँचाने वाले स्त्रोतों को भी दूर रखना चाहिए । विद्युत तरंगों अथवा मेट्राजोल द्वारा चिकित्सा के परिणाम एक समान निकलते हैं, किन्तु मेट्राजोल का प्रयोग सापेक्षतः सरल होता है। जैन मनोविज्ञान में क्षिप्तता एवं उन्माद जैन मनोविज्ञान में चित्त के दो रूप बताये गये हैं-क्षिप्त चित्त तथा दिप्त चित्त, जो निम्न प्रकार से जाने जा सकते हैं क्षिप्त चित्त : 11 "क्षिप्तं नष्टं राग-भया - ऽपमानंश्चितं यस्याः सा क्षिप्तचित्ता । ' अर्थात् जिसका (निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थी का) राग - भय अथवा अपमान के द्वारा चित्त नष्ट हो गया है वह व्यक्ति क्षिप्तचित्त कहलाता है। तीन निम्न कारणों से व्यक्ति क्षिप्तचित्त होता है। इनका स्वरूप समझाने के लिए विविध उदाहरण दिये गये हैं। यथा राग के कारण : अपने पति की मृत्यु के समाचार से वणिक् की पत्नी क्षिप्तचित्ता हो गयी । * भय के कारण : सहसा चारों ओर से घिरकर मनुष्य भय के कारण क्षिप्तचित्त हो जाता है। जैसे - जनार्दन के भय से सोमिल नाम का ब्राह्मण क्षिप्तचित्त हो गया । " अपमान के कारण : किसी वाद-विवाद में पराजित होकर कोई निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी क्षिप्तचित्त हो जाती है । ६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525065
Book TitleSramana 2008 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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