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________________ श्रमण, वर्ष ५९, अंक ३ जुलाई-सितम्बर २००८ पाश्चात्य एवं जैन मनोविज्ञान में मनोविक्षिप्तता एवं उन्माद डॉ० साधना सिंह* - __ मन जब असंतुलित हो जाता है तब वह सामान्य स्थिति में नहीं रह पाता है और उसकी गतिविधि सामान्य व्यवहारों से भिन्न हो जाती है। मन की उस असामान्य अवस्था को ही मनोविक्षिप्तता कहते हैं। मनोविक्षिप्तता का ही एक रूपया प्रकार उन्माद समझा जाता है। मनोविक्षिप्तता एवं उन्माद के सम्बन्ध में जैन मनोविज्ञान ने भी विवेचन प्रस्तुत किये हैं और पाश्चात्य मनोविज्ञान में तो इनकी विस्तारपूर्वक चर्चा हुई है। पाश्चात्य मनोविज्ञान में मनोविक्षिप्तता एवं उन्माद सर्वप्रथम उन्नीसवीं सदी के प्रारम्भ में 'मनोविक्षिप्त' शब्द का प्रयोग मनोविज्ञान में देखा जाता है। उस समय इस शब्द के अन्तर्गत मानसिक विकार के समस्त पक्ष समाहित थे। किन्तु आजकल इसका प्रयोग मात्र मानसिक बिमारी के गम्भीर रूपों के लिए होता है। उन्नीसवीं सदी के मध्य में उन व्यवहारों के लिए जो किसी मनोविक्षिप्त व्यक्ति के द्वारा होते हैं, उन्माद या पागलपन शब्दों के प्रयोग देखे जाने लगे। उस समय उन्माद को परिभाषित करते हुए फ्रांस के एक विद्वान् एस्क्विरोल ने कहा था 'उन्माद अथवा मानसिक अपहरण (मेन्टल एलाइनेशन) ज्वर रहित दीर्घकालिक प्रमस्तिष्कीय भाव है, जिसमें संवेदनशीलता अवबोध, बुद्धि तथा संकल्प के विकारों की विशेषता होती है।'' इस परिभाषा से ऐसा लगता है कि उन्माद का क्षेत्र बहुत विस्तृत था, परन्तु बाद में चलकर मनोविक्षिप्तता एवं उन्माद में भेद किया जाने लगा, जिससे उन्माद का क्षेत्र मनोविक्षिप्तता के क्षेत्र से बहुत कम हो गया और यह भी समझा जाने लगा कि जितनी गम्भीरता मनोविक्षिप्तता में होती है, उतनी उन्माद में नहीं होती। उन्माद मनस्ताप का एक प्रकार होता है। मनस्ताप और मनोविक्षिप्तता की तुलना करते हुए कहा गया है कि मनोविक्षिप्त की अपेक्षा मनस्ताप में गम्भीरता कम होती है, क्योंकि मनोविक्षिप्तता एक मुख्य मानसिक बीमारी होती है जिसके द्वारा पूरा व्यक्तित्व ग्रस्त होता है। मनोविक्षिप्तता की हालत में व्यक्ति कुछ करने की स्थिति में नहीं होता जबकि मनस्ताप की अवस्था में वह अपना कार्य कर लेता है और उसे अपने लक्षणों का भी * ए/१३, बेउर जेल रोड, पाटलीपुत्र केन्द्रीय स्कूल के समीप, अनीसाबाद, पटना Jain Education International For Private & Personal Use Only For www.jainelibrary.org
SR No.525065
Book TitleSramana 2008 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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