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________________ अपभ्रंश जैन कवियों का रसराज - ‘शांत रस' : ४१ इन ग्रन्थों के अतिरिक्त अपभ्रंश काव्य की ऐसी अनेक रचनाएँ हैं जिनका पर्यवसान शान्त रस में हुआ है, जैसे- कवि पुष्पदन्त कृत जसहरचरिउ, नयनन्दी कृत सुदंसणचरिउ, धाहिलकृत पउमसिरीचरिउ, श्रीधर कृत पासणाहचरिउ, शालिभद्रसूरि रचित भरत बाहुबली रास आदि। इस प्रकार अपभ्रंश के अनेक काव्यों एवं खण्ड काव्यों में शांतरस रसराज के रूप में प्रतिष्ठित है। प्रत्येक अपभ्रंश जैन कवि के काव्य में शांत रस चरम को प्राप्त करता हुआ दिखलाई पड़ता है । इसका प्रमुख कारण यह है कि जैन धर्म मोक्ष में ही जीवन की अन्तिम परिणति को श्रेयस्कर मानता है। प्रारम्भ में भरत मुनि ने इस रस को स्वतंत्र रूप में मान्य नहीं किया था। परन्तु अब साहित्य में शांत रस को स्वतंत्र रूप से मान्यता प्राप्त है। जैन कवियों द्वारा अपभ्रंश और पुरानी हिन्दी में जिस शांत रस को रसराज के रूप में प्रतिष्ठा मिली वही शांत रस कालान्तर में स्वतंत्र रस के रूप में प्रतिष्ठित होकर काव्य की शोभा बढ़ा रहा है। आधुनिक काव्यशास्त्रियों में श्री कन्हैयालाल पोद्दार ने मोक्ष और अध्यात्म भावना से उत्पन्न इस रस को शांत रस की संज्ञा प्रदान की है। संस्कृत काव्यशास्त्रियों में मम्मट के बाद अभिनवगुप्त ने शांत रस के स्थायीभाव को समझाया। तत्पश्चात् धनंजय और विश्वनाथ ने इसका शिल्प निर्धारण किया। फलत: रीतिकालीन कवियों ने मम्मट को अपना आदर्श मानकर इसे अपने काव्यों में महत्त्व प्रदान किया। केशवदास ने तो इसमें शम की प्रधानता होने से इसका नाम ही शम रस रख दिया। __ जैन कवियों की यह मान्यता है कि जिस प्रकार छोटे-छोटे निर्झर किसी समुद्र में मिल जाते हैं उसी प्रकार सभी रसों का मिलन शांत रस में हो जाता है। अपनी इस मान्यता का सफल निर्वाह इन कवियों ने अपने काव्य में किया है। शान्त रस को रसराज के रूप में प्रतिष्ठित करना जैन कवियों का साहित्य जगत् को अनुपम योगदान कहा जा सकता है। सन्दर्भ : १. विरहाणल-जाल-पलित्त-तणु, चिंतेवए लग्गु विसण्णमणुं।।१।। सच्चउ संसारि ण अत्थि सुहु, सच्चउ गिगि-मेरुसमाणु दुहु।।२।। सच्चउ जर-जम्मण-भउ, सच्चउ जीविउ जलविंदु सउ।।३।। कहो घरु कहो परियणु बंधु जणु, कहो माय वप्पु कहो सहि सयणु।।४।। कहो पुत्तु-मित्तु कहो किर घरिणि, कहो भाय सहोयरु कहो बहिणि ।।५।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525065
Book TitleSramana 2008 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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