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श्रमण, वर्ष ५९, अंक ३ / जुलाई-सितम्बर २००८
प्राप्ति की कामना नहीं है बल्कि स्त्री संरक्षा है । इस प्रकार फलागम की दृष्टि से यहाँ वीर रस गौण हो गया है और श्रृंगार रस की प्रधानता हो गई है। लेकिन उसका पर्यवसान शान्त रस में होता है जिससे इसमें शान्त रस की प्रधानता हो जाती है।
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धवल विरचित हरिवंशपुराण १२२ सन्धियों में विभक्त है । ग्रन्थ में शृंगार, वीर, करुण और शान्त रस की अभिव्यंजना अनेक स्थलों पर मौजूद है। मनुष्यों द्वारा दुष्कर्म में प्रवृत्ति और इस संसार के प्रति मन में उत्पन्न नश्वरता को कवि ने निर्वेदपूर्ण संवेदना के रूप में प्रस्तुत किया है । कवि कहता है कि पुत्र, मित्र, कलत्र आदि सदा किसके हुए हैं। ये सभी पानी के बुलबुले की भाँति हैं जो मेघवर्षा के जल के समान उत्पन्न और नष्ट होते रहते हैं। या फिर जिस प्रकार एक वृक्ष पर बहुत से पक्षी आकर एकत्र हो जाते हैं और फिर चारों दिशाओं में अपने-अपने निवास को चले जाते हैं, इसी प्रकार प्रियजन भी क्षणिक होते हैं, आते हैं और चले जाते हैं।
मुनि
कामर विरचित 'करकंडचरिउ' १० सन्धियों में निबद्ध है । करकंडचरिउ एक धार्मिक काव्य है जो अनेक अलौकिक और चमत्कारपूर्ण घटनाओं से युक्त है। जैन धर्म का सदाचारमय जीवन ही कवि को अभिप्रेत है। उसने मुख्य नायक करकंडु के जीवन चरित्र के माध्यम से मानव आदर्श को स्थापित करने का प्रयास किया है। नायक में वीरता, स्वाभिमान, उत्साह, मातृ भक्ति आदि गुण कूट-कूट कर भरे हैं।
रस की दृष्टि से इसमें वीर रस, श्रृंगार रस और शान्त रस का बाहुल्य है। युद्ध में होने वाली विभिन्न क्रियाओं और चेष्टाओं का कवि ने सजीव चित्रण किया है। स्त्री सौन्दर्य में कवि ने कोई नये दृष्टान्त का प्रयोग न कर परम्परागत उपमानों का ही प्रयोग किया है। इस ग्रन्थ की विशेषता यह है कि इसमें शृंगार रस की अपेक्षा वीर रस को अधिक महत्त्व दिया गया है, क्योंकि समरभूमि में हुए युद्ध की परिणति विवाह में होती है लेकिन उसका पर्यवसान निर्वेद व शान्त में ही होता है। पुत्र वियोग में विलाप करती हुई स्त्री को देखकर राजा करकंडु को वैराग्य हो जाता है और वे मर्त्यलोक के दुःखसागर में डूब जाते हैं। कहते हैं सुख मधुबिन्दु के समान स्वल्प है। काल के प्रभाव से कोई नहीं बचता । युवा, वृद्ध, बालक, चक्रवर्ती, विद्याधर, किन्नर आदि सभी
के वशीभूत हैं। यह संसार नश्वर है । " प्रत्येक प्राणी अपने-अपने कर्मों के अनुसार कर्मों को भोगता है। वह अकेला ही आता है और अकेला ही जाता है। इस काव्य में महाराज करकंडु की कथा वर्णित है । कवि ने महाराज करकंडु को घोर तपश्चर्या कराकर काव्य को शमप्रधान बना दिया है । पुत्र के लिए विलाप करने वाली स्त्री को देखकर करकंडु के मन में वैराग्य की उत्पत्ति होती है । यहाँ कवि ने सभी सुखों की स्थिति शांत रस में बताई है।
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