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________________ ३० : श्रमण, वर्ष ५९, अंक ३/जुलाई-सितम्बर २००८ शरीर सक्रिय होता है। शरीर के सक्रिय होने पर वक्ता का स्वरयन्त्र भाषा वर्गणा में परिवर्तित हो जाता है। प्रज्ञापनासूत्र में भाषा को शारीरिक प्रयत्नों से उत्पन्न होना कहा गया है। शब्द और ध्वनि का अन्तर स्पष्ट करने के लिए शब्द को प्रायोगिक और वैनसिक, दो भागों में विभक्त किया गया है। भाषा प्रायोगिक शब्दों से बनती है, वैस्त्रसिक शब्दों से नहीं। प्रायोगिक शब्द वे हैं जो प्रयत्नों द्वारा निकाली गई ध्वनि से निर्मित होते हैं, इसी प्रकार जब पदार्थों के संघर्ष से स्वाभाविक ध्वनि का निष्पादन होता है तो उन ध्वनियों से वैनसिक शब्द बनते हैं। पद का स्वरूप पाणिनि ने सुबन्त और तिङ्न्त को पद कहा है। पाणिनि के इस द्विविध विभाजन का अनुसरण करते हुए जयन्त भट्ट ने नाम और आख्यात दो प्रकार के पद स्वीकार किये हैं। नाम और आख्यात से भिन्न पद स्वरूपों-उपसर्ग, निपात और कर्मप्रवचनीय का जयन्त भट्ट नाम में अन्तर्भाव करते हैं। इस प्रकार नाम वे हैं जिनमें सुप प्रत्यय लगते हैं और आख्यात वे हैं जिनमें तिङ् प्रत्यय लगते हैं। न्यायसूत्रकार का भी यही मन्तव्य है। महर्षि अक्षपाद विभक्त्यन्त को पद कहते हैं और विभक्ति से उनका तात्पर्य नाम और आख्यात से लगने वाले सुप और तिङ् प्रत्ययों से है। भाष्यकार के मत में उपसर्ग, निपात आदि भी विभक्त्यन्त ही है। तथापि विशेष शास्त्र-व्यवस्था के कारण तत्-तद् स्थलों में विभक्ति का अदर्शन होता है। तर्कसंग्रहकार ने शक्त को पद कहा है। शक्त का अर्थ है वह वर्ण समूह जो शक्ति का आश्रय हो। शक्ति कोई अतिरिक्त पदार्थ नहीं है, वरन् पद का पदार्थ के साथ सम्बन्ध ही शक्ति है। इस प्रकार न्याय दर्शन में शक्ति के सहयोग से पद द्वारा अर्थबोध स्वीकार किया गया है। पद का स्वरूप मुख्यतः व्याकरण दर्शन का विषय है। अतः यहाँ इसके विस्तार में न जाकर पद के अर्थ पर विचार करना अधिक न्यायसंगत होगा। जैन दर्शन के अनुसार जिसके द्वारा अर्थ यानी वाच्य-विषय को जाना जाता है अथवा जिसके द्वारा अर्थ का प्रतिपादन होता है वह पद कहलाता है। शब्द और पद दोनों एक नहीं हैं, बल्कि दोनों में अन्तर है। विभक्तिरहित होने से शब्द का अर्थ (वाच्य) वाक्य निरपेक्ष होता है और विभक्ति युक्त होने से पद का अर्थ (वाच्य) वाक्य सापेक्ष होता है। पद-पदार्थ-सम्बन्ध (शक्ति) के ग्रहण से साधन : पद का अर्थ केवल उन श्रोताओं द्वारा ही ग्रहीत होता है जो श्रूयमाण पद की वक्तुरिष्ट तदर्थ विषयाशक्ति का ग्रहण कर चुके हैं। वक्ता किसी विशेष अर्थ के लिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525065
Book TitleSramana 2008 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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