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________________ पदार्थ बोध की अवधारणा : ३१ तद्बोधकत्वानुकूल पद का उच्चारण करता है और श्रोता उस पद के श्रवण के बाद वक्तृतात्पर्यानुकूल अर्थ की बोधक शक्ति का पूर्व में ग्रहण होने से उस अर्थ का ज्ञान करता है। शक्तिग्रह के साधनों पर परवर्ती नव्य नैयायिकों ने विस्तार से विचार किया है, परन्तु जयन्त भट्ट ने शक्तिग्रह के साधनों की अलग गवेषणा की अपेक्षा की है। शक्तिग्रह के आठ हेतु कहे गये हैं जो इस कारिका में संग्रहीत हैं। शक्तिग्रह व्याकरणोपमानकोशाप्तवाक्याद् व्यवहारतश्च । वाक्यास्य शेषाद्विवृतेर्वदन्ति सन्निध्यतः सिद्धपदस्य वृद्धः ।। व्याकरण, उपमान, कोश, आप्तवाक्य, वृद्ध व्यवहार, वाक्यशेष, विवृत्ति और सान्निध्य से वृद्ध लोग सिद्ध पदों को शक्तिग्रह कहते हैं। शक्तिग्रह के इन आठ उपायों में वृद्ध व्यवहार प्रमुख साधन है जिससे व्यापक पैमाने पर शक्तिग्रह होता है। इसके पश्चात् अध्ययन आदि के द्वारा व्याकरणादि भी शक्तिग्रह में सहायक होते हैं। पदार्थबोध पद-पदार्थ सम्बन्ध के ज्ञान के बिना असम्भव है और शक्ति या पद-पदार्थ का ज्ञान अनुमान के बिना सम्भव नहीं है। अतएव शक्तिग्रह में अनुमान सहकारी कारण है। प्रयोजक वृद्ध द्वारा 'गामानय आदि वाक्यों का उच्चारण करने पर प्रयोज्य वृद्ध द्वारा गामानयनानुकूल व्यापार देखकर तथा प्रयोजक वृद्ध द्वारा 'घटमानय' कहे जाने पर प्रयोज्यवृद्ध की घटमानयनानुकूल क्रिया देखकर अव्युत्पन्न बालक 'आनय' पद से 'आनयनानुकूलव्यापार' या 'लाना' अर्थ का अनुमान करता है। इस प्रकार अज्ञ व्यक्ति आवापोद्वाप की इस प्रक्रिया द्वारा शक्ति का ज्ञान करता है। शक्तिग्रह के अन्य उपायों में से व्याकरण द्वारा धातुओं, विभक्तियों, कारकों और प्रत्ययों आदि के द्वारा व्यक्त शक्ति का ग्रहण करता है। गवय पद द्वारा गोसदृश पिण्ड विशेष रूप जो अर्थ होता है उसका कारण उपमान है। इसी प्रकार अमरकोश, निघण्टुकोश भी पर्याय शब्दों आदि के द्वारा शक्तिग्रह कराते हैं। आप्तवाक्य भी शक्तिग्रह का कारण होता है, जैसे- कोई आप्त पुरुष कहे 'कोकिलः पिकशब्दवाच्यः' तो यहाँ आप्त वाक्य के द्वारा पिक पद का कोकिल अर्थ से सम्बन्ध गृहीत होता है। वाक्यशेष द्वारा भी कभी-कभी शक्तिग्रह होता है, जैसे वेद में 'यवमयश्चरूर्भवति' यह श्रुति है। यहाँ यव पद का आर्य लोग दीर्ध शूक वाले धान्य अर्थ में प्रयोग करते हैं और म्लेच्छ लोग कङ्गु अर्थ में यव पद का प्रयोग करते हैं, परन्तु "वसन्ते सर्वस्यानां जायते पत्रशातनम्। मोदमानाश्च तिष्ठन्ति यवाः कणिशशालिनः" इस वाक्य से वाक्यशेष के द्वारा 'यव' पद की दीर्ध शूक में शक्ति है-यह ज्ञान होता है। विवृति या विवरण के द्वारा घटः का कलशः या पचति का पाक करोति-इत्यादि प्रकारक अर्थ में शक्तिग्रह होता है। सिद्ध पद की सन्निधि द्वारा भी शक्तिग्रह होता है जैसे- 'सहकारतरौ मधुरं पिको रौति' इस वाक्य में असिद्ध पद का पिक का सिद्ध पद 'सहकारातरू' और 'मधुरं रौति' के सान्निध्य के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525065
Book TitleSramana 2008 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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