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________________ पदार्थ बोध की अवधारणा श्रमण, वर्ष ५९, अंक ३ जुलाई-सितम्बर २००८ मानव के भाषायी व्यवहार का आधार वाक् या वह वैखरी वाणी है जो मनुष्य की प्राणवायु के रूप में मुखगुहा के विभिन्न अवयव संस्थानों के संस्कार लेकर व्यक्त होती है । उस व्यक्त वाणी के उच्चारण और श्रवण के द्वारा अपने अभीष्ट अर्थ को दूसरे तक पहुँचाने या दूसरे के अभिमत को जानने की प्रक्रिया भाषा व्यवहार है। वक्ता अपने अभीष्ट अर्थ को शब्दों द्वारा व्यक्त करता है और श्रोता शब्दों से अर्थ का ग्रहण करता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि जितने भी अर्थ हैं वे सब शब्द द्वारा वाक्यवाच्य हैं और शब्द भी अर्थ प्रतीति का कारण बनते हैं। वाक्य एक पूर्ण अर्थ का कथन करने में समर्थ होता है, अतएव वह पद समूह जिससे एक पूर्ण अर्थ अभिव्यक्त हो, वाक्य कहलाता है। वाक्य से छोटी इकाई पद है। वाक्य पदों से मिलकर बनता है । पद भी अपना अर्थ स्पष्ट करने में सक्षम है। पद में 'इस पद द्वारा यह अर्थ जानना चाहिए' इस रूप में ईश्वरेच्छा जिसे शक्ति या संकेत कहते हैं, समवेत होती है । पद श्रवण के अनन्तर श्रोता इस शक्ति के द्वारा पद से अर्थ का ग्रहण करता है । पदार्थ का वाक्यार्थ से यह भेद होता है कि पद का अर्थ पूर्ण एवं निराकांक्ष नहीं होता, अपितु वह साकांक्ष और पूर्ण होता है। पद विभिन्न क्षणिक वर्णों से मिलकर बनता है। ये वर्ण अर्थप्रत्यायक नहीं होते, अतएव वाक् की इकाई के रूप में वाक्य और पद का ग्रहण किया जाता है; क्योंकि वाक्य और पद ही अर्थबोधन में समर्थ होते हैं। वर्ण चूँकि अर्थबोधन में अक्षम होते हैं, अत: वर्णों को वाक् की इकाई नहीं माना जाता । डॉ० जयन्त उपाध्याय' जैन दर्शन में शब्द और ध्वनि में अन्तर को स्वीकार किया गया है। सभी शब्द ध्वनि हो सकते हैं किन्तु सभी ध्वनि शब्द नहीं कहे जा सकते। सामान्यतया श्रोत्रेन्द्रिय द्वारा ग्राह्य वर्णों की नियत क्रम में होने वाली ध्वनि को शब्द कहा जाता है।" दूसरे शब्दों में वर्णों के समूह को शब्द कहा जा सकता है। जैन दार्शनिक शब्द को नित्य न मानकर इसे उत्पन्न मानते हैं। उनका मानना है कि जब वक्ता में अपने विचारों और भावनाओं को दूसरों के प्रति अभिव्यक्त करने की इच्छा होती है तब मनोयोग सक्रिय हो जाता है । मन के सक्रिय होने पर वाक् सक्रिय हो जाता है और वाक् सक्रिय होने पर Jain Education International * 'जनरल फेलो (आई०सी० पी०आर०), दर्शन एवं धर्म विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525065
Book TitleSramana 2008 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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