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वर्तमान संदर्भ में अनेकान्तवाद की प्रासंगिकता : २५
दोनों पूर्ण सत्य हैं, तो फिर दोनों में विरोध क्यों? इसका अभिप्राय है कि दोनों पूर्णरूपेण सत्य नहीं हैं। तब प्रश्न उठता है कि क्या दोनों पूर्णरूपेण असत्य हैं? ऐसा भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि ये दोनों जिस सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हैं, उसकी हमें प्रतीति होती है। अत: ये दोनों सिद्धान्त अंशतः सत्य हैं और अंशत: असत्या एक पक्ष जिस अंश में सच्चा है, दूसरा पक्ष उसी अंश में झूठा है। दोनों के आपसी कलह का मुख्य कारण यही है। भगवान् महावीर ने इन वैचारिक जगत् के दोषों को दूर करने का प्रयास किया। उनके अनुसार किसी भी प्रश्न का निरपेक्ष उत्तर नहीं हो सकता है।'
वस्तु के अनन्त धर्म हैं और उन अनन्त धर्मों के समूह को जानना अनेकान्त' है। किन्तु सामान्य जन के लिए किसी वस्तु के अनन्त धर्मों को जानना असंभव है। सामान्यजन कुछ धर्मों को ही जानते हैं। अनन्त धर्म को तो कोई सर्वज्ञ ही जान सकता है, जिसे पूर्ण ज्ञान की उपलब्धि रहती है। 'न्यायदीपिका' में अनेकान्त को परिभाषित करते हुए कहा गया है - 'जिसके सामान्य-विशेष, गुण व पर्यायरूप अनेक अन्त या धर्म हैं, वह अनेकान्त रूप सिद्ध होता है। जो धर्म वस्तु के स्वरूप का निर्धारण करते हैं अर्थात् जिसके बिना वस्तु का अस्तित्व कायम नहीं रह सकता उन्हें गुण कहते हैं, जैसे मनुष्य में मनुष्यत्व, सोना में सोनापन। गुण वस्तु का आन्तरिक धर्म होता है। जो धर्म वस्तु के बाह्याकृतियों यानी रूप-रंग को निर्धारित करते हैं, जो बदलते रहते हैं, उत्पन्न और नष्ट होते रहते हैं उन्हें पर्याय कहते हैं, जैसे- सोना कभी अंगूठी, कभी हार, कभी कर्णफूल के रूप में देखा जाता है, किन्तु इन सभी अवस्थाओं में सोनापन कायम रहता है। कोई भी वस्तु गुण की दृष्टि से ध्रुव एवं स्थायी और पर्याय की दृष्टि से अस्थायी है, उसमें उत्पत्ति और विनाश है। जैन दर्शन में तत्त्व को परिभाषित करते हुए कहा गया है- 'उत्पादव्यय ध्रौव्ययुक्तं सत्' अर्थात् सत् उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य यानी स्थिरता से युक्त होता है।
अनेकान्तवाद के व्यावहारिक पक्ष को स्याद्वाद के नाम से भी जाना जाता है। स्याद्वाद और अनेकान्तवाद दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक व्यवहार है तो दूसरा सिद्धांत, एक प्रकाशक है तो दूसरा प्रकाश्या आचार्य प्रभाचन्द्र ने न्यायकुमुदचन्द्र' में कहा है - 'अनेकान्तात्मकार्थकथनं स्याद्वादः '६ अर्थात् अनेकान्तात्मक अर्थ के कथन को स्याद्वाद कहते हैं।
जीवन और अनेकान्तवाद का अभिन्न सम्बन्ध है, लेकिन आग्रहवश वह एकान्तिक स्वरूप का चादर धारण किए रहता है। आग्रह की चादर जहाँ हटी कि
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