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________________ जैनशास्त्रों में विज्ञानवाद : २१ स्वरूप अविभाग (विभाग रहित) है, किन्तु विपरीत ज्ञान के कारण ग्राह्य और ग्राहक में भेद की कल्पना कर ली जाती है। बुद्धि के द्वारा अन्य कोई बाह्य अर्थ ग्रहण नहीं है और उस बुद्धि का भी कोई अन्य ग्राहक नहीं है। वह बुद्धि ग्राह्य और ग्राहक के वैधुर्य (अभाव) के कारण स्वयं प्रकाशित होती है। आचार्य प्रभाचन्द्र ने पर्वोक्ततर्को कि-तिमिर रोगी के द्वारा एक चन्द्र में द्विचन्द्रों का प्रतिभास होने तथा सहोपलम्भ नियम के कारण नील और नील बुद्धि में अभेद होने से विज्ञानवाद की सिद्धि होती है, इस मत की पूर्वपक्ष के रूप में स्थापना की है। पुन: मत की समीक्षा करते हुये आचार्य प्रभाचन्द्र ने पूर्वाचार्यों द्वारा प्रदत्त तर्कों का ही सहारा लिया है और वे कहते हैं कि- विज्ञानमात्र तत्त्व का साधक कोई प्रमाण नहीं है, क्योंकि प्रत्यक्ष से तो विज्ञानमात्र तत्त्व की ही सिद्धि नहीं होती है, अपितु उससे तो अश्व, गज, घट, पट आदि बाह्य पदार्थों की भी सिद्धि होती है। यदि प्रतिभासित होने पर भी बाह्य पदार्थों का अभाव मानेंगे तो विज्ञप्तिमात्र का भी अभाव हो जायेगा। अनुमान से भी विज्ञप्तिमात्र की सिद्धि सम्भव नहीं है, क्योंकि ज्ञानमात्र का साधक जो भी अनुमान होगा वह प्रत्यक्ष बाधित होने के कारण अप्रमाण ही होगा। इस प्रकार प्रस्तुत लेख में आचार्य समन्तभद्र की आप्तमीमांसा एवं उस पर, आधारित आचार्य विद्यानन्द की अष्टसहस्री टीका एवं विद्यानन्द की ही एक अन्य कृति सत्यशासन परीक्षा तथा आचार्य प्रभाचन्द्र के प्रमेयकमलमार्तण्ड में पूर्वपक्ष के रूप में उद्धृत एवं योगाचारवादी बौद्ध दार्शनिकों के द्वारा स्वीकृत विज्ञानवाद के सिद्धान्त को प्रस्तुत किया गया है। साथ ही उक्त विज्ञानवाद सिद्धान्त के सन्दर्भ में जैन दार्शनिकों का क्या दृष्टिकोण है? अथवा उक्त सिद्धान्त का निराकरण किन-किन तर्कों के आधार पर किया जा सकता है? इन सबका संक्षेप में विवेचन करने का प्रयास मात्र है। अतः अन्त में यहाँ पर ज्ञातव्य है कि कोई भी सिद्धान्त न तो छोटा होता है और न बड़ा। किसी भी वस्तु को देखने के अपने-अपने तरीके होते हैं और उन्हीं तरीकों को आधार बनाकर यहाँ योगाचारवादी बौद्ध दार्शनिकों के विज्ञानवाद की समीक्षा की गई है। किसी को नीचा अथवा ऊँचा दिखाने का मन में किञ्चित् भी विकल्प नहीं है। सन्दर्भ : १. आचार्य नरेन्द्रदेव, बौद्धधर्म-दर्शन, पृष्ठ ३६. २. दृश्यं न विद्यते बाह्यं चित्तं चित्रं हि दृश्यते। देह-योग-प्रतिष्ठानं चित्तमात्रं वदाम्यहम्।। लंकावतारसूत्र ३/३३ (देखें, आप्तमीमांसा तत्त्वदीपिका, टिप्पण, पृष्ठ ४७) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525065
Book TitleSramana 2008 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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