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श्रमण, वर्ष ५९, अंक ३/जुलाई-सितम्बर २००८
को भी इष्ट नहीं है। अर्थात् आपने (विज्ञानाद्वैतवादियों ने) ज्ञान को छोड़कर और कोई अभेद स्वीकार ही नहीं किया है।
आचार्य विद्यानन्दकृत अष्टसहस्री नामक टीका ग्रन्थ के अतिरिक्त उनका एक अन्य स्वतन्त्र ग्रन्थ सत्यशासन परीक्षा भी है, जिसमें उन्होंने विभिन्न एकान्तवादी दर्शनों की समीक्षा की है। इसी क्रम में उन्होंने विज्ञानाद्वैतवाद की भी समीक्षा की है।
आचार्य विद्यानन्द ने अपनी अष्टसहस्री में विज्ञानाद्वैतवाद के पूर्व पक्ष अथवा उत्तरपक्ष में जो युक्तियाँ दी हैं, उन्हीं युक्तियों का अनुसरण प्रायः इस ग्रन्थ में भी किया गया है। हाँ! कुछ नवीन उदाहरणों के माध्यम से विषय का स्पष्टीकरण अवश्य किया है। विज्ञानवादियों के अनुसार विश्वमञ्च पर नाटकीय दृश्य उपस्थित करने वाली एक मात्र स्वसंवित्ति (विज्ञान) ही है, उससे भिन्न पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश कुछ भी नहीं है। वही संवित्ति ही नील, पीत, सुख, दुःख आदि रूप में वैसे ही प्रतीत
होती है जैसे कोई नारी चित्र-फलक पर दृष्टिगोचर होती है, किन्तु उसका अपना कुछ - भी अस्तित्व नहीं है।
नावनिर्न सलिल न पावको न मरुन्न गगनं न चापरम्। विश्वनाटकविलाससाक्षिणी संविदेव परितो विजृम्भते।। एक संविदि विभाति भेदधीर्नीलपीत- सुखदुःख रूपिणी। निम्ननाभिरियमुन्नस्तनी स्त्रीति चित्रफलके समे यथा।।१२
इस मत की समीक्षा करते हुये आचार्य विद्यानन्द ने पूर्वोक्त युक्तियों के माध्यम से ही विज्ञानाद्वैतवाद का निराकरण करते हुये कहा है कि यह विज्ञानाद्वैतवाद प्रत्यक्ष विरुद्ध है, क्योंकि विज्ञान स्वरूप अन्तरङ्ग अर्थ की तरह बाह्य अर्थ का भी वास्तविक रूप से प्रत्यक्ष होता है। अतः इसे भ्रान्त नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि विज्ञानवादियों को भी सर्वथा क्षणिक, अनन्यवेद्य तथा नाना सन्तानों वाले विज्ञानों की सिद्धि अनुमान प्रमाण से ही करनी होगी।
आचार्य प्रभाचन्द्र ने अपने प्रमेयकमलमार्तण्ड में योगाचारवादी विज्ञानाद्वैतवादियों के मत को पूर्वपक्ष के रूप में उपस्थापित करते हुये कहा है कि विज्ञप्तिमात्र ही एक तत्त्व है और उसका ग्राहक ज्ञान प्रमाण है। उसके अतिरिक्त अन्य किसी भी पदार्थ की सत्ता नहीं है। ज्ञान ग्राह्य और ग्राहक के भेद से रहित है, किन्तु अनादिकालीन अविद्या के कारण दोनों पृथक्-पृथक् प्रतीत होते हैं। बौद्ध दर्शन के प्रसिद्ध आचार्य धर्मकीर्ति ने प्रमाणवार्तिक में दो कारिकायें लिखीं हैं, जिनका भावार्थ यह है कि- बुद्धि का
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