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________________ जैनशास्त्रों में विज्ञानवाद : १९ सत्यता और बहिरर्थ की असत्यता सिद्ध नहीं हो सकती है। विज्ञानाद्वैतवादियों को स्वप्नज्ञान अथवा इन्द्रजाल की तरह ग्राह्याकार और ग्राहकाकार को भ्रान्त मानना उचित नहीं है, क्योंकि यदि स्वप्नज्ञान में भ्रान्तता का ग्राहक ज्ञान भ्रान्त है तो भ्रान्त के द्वारा स्वप्नज्ञान में भ्रान्तता कैसे सिद्ध हो सकेगी? और यदि वह ज्ञान अभ्रान्त है तो प्रत्यक्षादि को भी अभ्रान्त मानना चाहिये। विज्ञान मात्र की सिद्धि के लिये प्रमाण मानना आवश्यक है और उसके मानने पर जैसे अन्तरङ्ग अर्थ की सिद्धि होगी वैसे ही बहिरङ्ग अर्थ की भी सिद्धि हो जायेगी। केवल अन्तरङ्ग का सद्भाव मानना युक्तिविरुद्ध एवं असंगत है। ___ अनुमान से भी विज्ञप्तिमात्रता की सिद्धि नहीं हो सकती है, क्योंकि साध्य और साधन के ज्ञान को यदि विज्ञानमात्र ही माना जाये तो प्रतिज्ञा दोष और हेतु दोष के कारण न कोई साध्य बन सकता है और न हेतु। इसी को स्पष्ट करते हुये आचार्य समन्तभद्र लिखते हैं कि साध्य-साधन विज्ञप्तेर्यदि विज्ञप्तिमात्रता। न साध्यं न च हेतुश्च प्रतिज्ञाहेतु दोषतः।। विज्ञानाद्वैतवादियों के अनुसार अर्थ और ज्ञान में अभेद है, क्योंकि ये दोनों एक साथ देखे जाते हैं। अर्थात् नील पदार्थ और नील ज्ञान-दोनों पृथक्-पृथक् नहीं हैं। जैसे तिमिर रोगी को एक चन्द्र में द्विचन्द्र का बोध होता है, वैसे ही विज्ञान में भ्रान्ति के कारण अर्थ और ज्ञान-इन दोनों की एक साथ प्रतीति होती है। यहाँ सहोपलम्भनियम रूप हेतु के द्वारा ज्ञान और अर्थ में अभेद रूप साध्य की सिद्धि बतलाई गई है। इस सन्दर्भ में आचार्य विद्यानन्द का कहना है कि-अपने द्वारा कहे गये धर्म और.धर्मी के भेद रूप वचन में एवं हेतु और दृष्टान्त के भेद वचन में अद्वैतवचन से विरोध आता है। तद्वचन और ज्ञान (नील शब्द और नील ज्ञान) में भेद कहने पर उसमें एकत्व की सिद्धि करने रूप वचन का विरोध है अथवा एकत्व रूप वचन कहने में भी विरोध आता है। इस प्रकार अभेद और भेद रूप स्ववचन में विरोध से डरते हुये अथवा अपने वचनों के अभाव को अपने वचनों से ही प्रदर्शित करते हुये विज्ञानाद्वैतवादी स्वस्थ कैसे कहे जा सकते हैं?१९ 'मैं सदा मौनव्रती हूँ इस कथन के समान स्ववचन विरोध होने से विज्ञानाद्वैतवादियों के मत में अप्रसिद्ध विशेष्य और अप्रसिद्ध विशेषण रूप प्रतिज्ञादोष आ जाता है, जबकि नील और नील ज्ञान रूप विशेष्य में उसका अभेद रूप विशेषण विज्ञानाद्वैतवादियों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525065
Book TitleSramana 2008 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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