SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 23
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८ : श्रमण, वर्ष ५९, अंक ३/जुलाई-सितम्बर २००८ कहते हैं। विज्ञानाद्वैतवादी बौद्धसम्मत इस एकान्तवाद को स्वीकार करने पर हेतुवाद और आगमवाद के निमित्तभूत सभी उपायतत्त्व बुद्धि और वाक्य असत्य ही हो जायेंगे और असत्य हो जाने से वे बुद्धि और वाक्य प्रमाणाभास ही सिद्ध होंगे। क्योंकि प्रमाण तो सत्यपने से व्याप्त है और प्रमाणाभास की व्याप्ति असत्य से है तथा वह प्रमाणाभास भी प्रमाण के बिना कैसे सम्भव होगा? उस प्रमाणाभास के असम्भव होने पर उसके व्यवहार को अवास्तविक रूप से ही बौद्ध स्वप्न व्यवहार के समान संवृति (माया-प्रपञ्च) से भी कैसे जान सकेंगे? प्रो० उदयचन्द्र जैन ने इस विषय को और स्पष्ट करते हुये अपनी आप्तमीमांसा तत्त्वदीपिका नामक हिन्ही टीका में लिखा है कि-ज्ञानाद्वैतवादी कहते हैं कि अन्तरङ्ग अर्थ (ज्ञान) ही सत्य है और जड़ रूप बहिरङ्ग अर्थ असत्य है, क्योंकि उसमें स्वयं प्रतिभासित होने की योग्यता नहीं है। जो स्वयं प्रतिभासित नहीं होता है वह सत्य नहीं है। आगे वे लिखते हैं कि-ज्ञानाद्वैतवादियों का उक्त कथन युक्तिसङ्गत नहीं है। यदि अन्तरङ्ग अर्थ ही सत्य है तो बुद्धि और वाक्य भी मिथ्या हो जायेंगे। यहाँ बुद्धि का तात्पर्य अनुमान से तथा वाक्य का तात्पर्य आगम से है। जब ज्ञान को छोड़कर अन्य कोई वस्तु सत्य नहीं है तो अनुमान और आगम कैसे सत्य हो सकते हैं? असत्य होने से अनुमान और आगम प्रमाणाभास होंगे। क्योंकि जो सत्य है वह प्रमाण होता है और जो असत्य है वह प्रमाणाभास होता है, किन्तु प्रमाणाभास-व्यवहार प्रमाण के होने पर ही हो सकता है। जब ज्ञानाद्वैतवादियों के यहाँ कोई प्रमाण ही नहीं है तो वे बुद्धि और वाक्य को प्रमाणाभास कैसे कह सकते हैं? विज्ञानवादी ज्ञान को क्षणिक, अनन्यवेद्य और नाना सन्तान वाला मानते हैं, किन्तु किसी प्रमाण के अभाव में इस प्रकार के ज्ञान को सिद्ध नहीं किया जा सकता है, क्योंकि वह स्वप्न की तरह भ्रान्त है-विज्ञानवादिनःसंविदां क्षणिकत्वम् अनन्यवेद्यत्वं नानासन्तानत्वम् इति स्वतस्तावन्न सिध्यति, भ्रान्तेः स्वप्नवत्। क्षणिक आदि रूप ज्ञान अनुभव में नहीं आता है, अतः स्वसंवेदन से विज्ञानमात्र की सिद्धि नहीं होती है। अनुमान से भी उसकी सिद्धि नहीं हो सकेगी, क्योंकि हेतु और साध्य में अविनाभाव का ज्ञान कराने वाला कोई प्रमाण नहीं है। मिथ्याभूत विकल्पज्ञान से विज्ञानमात्र की सिद्धि करने पर बहिरर्थ की सिद्धि भी उसी से हो जायेगी। वस्तुतः अपने पक्ष का समर्थन और दूसरे पक्ष का खण्डन करने के लिये प्रमाण की आवश्यकता होती है, किन्तु यहाँ प्रमाण के अभाव में विज्ञान की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525065
Book TitleSramana 2008 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy