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जैनशास्त्रों में विज्ञानवाद : १७
द्विचन्द्रों का प्रतिभास होता है, वैसे ही वासना के कारण विज्ञान में बाह्यार्थ की प्रतीति होने लगती है। अथवा बाह्य पदार्थों की सत्ता वैसे ही है जैसे कोई व्यक्ति स्वप्न में नाना पदार्थों का अनुभव तो करता है, किन्तु जागने पर कुछ भी शेष नहीं रहता है।
एक मात्र चित्त ही विविध रूपों में दिखलाई देता है। कभी वह देह के रूप में दिखलाई देता है और कभी योग के रूप में। अतः चित्त ही ग्राह्य-ग्राहक रूप में दृष्टिगोचर होता है। वस्तुत: घट-पटादि ग्राह्य पदार्थ और ग्राहक अर्थात् उन पदार्थों को ग्रहण करने वाला तथा जिसके द्वारा पदार्थ ग्रहण किया जाता है- ये तीनों विज्ञान के ही परिणमन हैं। जिसकी दृष्टि भ्रमित हो जाती है, वह ग्राह्य, ग्राहक और ज्ञान में भेद की कल्पना करने लगता है, जबकि विज्ञान एक रूप ही है।
जैन दार्शनिकों ने विज्ञानवाद को विज्ञानाद्वैतवाद के रूप में प्रस्तुत किया है। आचार्य समन्तभद्र ने अपनी आप्तमीमांसा में एकान्तवादी दर्शनों के अन्तर्गत जहाँ क्षणिकैकान्तवाद आदि बौद्धमत का उपस्थापन करते हुये खण्डन किया है, वहीं उन्होंने विज्ञानाद्वैतवाद को भी एकान्तवादी दर्शनों में समेटते हुये विज्ञानवाद को विज्ञानाद्वैतवाद के स्थान पर अन्तरङ्गार्थतैकान्तवाद के रूप में उपस्थापित कर उसका खण्डन किया है। वे लिखते हैं कि
अन्तरङ्गर्थतैकान्ते बुद्धिवाक्यं मृषाऽखिलम् प्रमाणाभासमेवातस्तत् प्रमाणादृते कथम्।।
अर्थात् अन्तरङ्ग अर्थ की सत्ता को ही सर्वथा एकान्त रूप से स्वीकार करने पर सभी बुद्धि और वाक्य झूठे हो जायेंगे तथा झूठे होने से वे प्रमाणाभास ही कहे जायेंगे। किन्तु प्रश्न यह है कि प्रमाण के बिना प्रमाणाभास की सत्ता कैसे बन पायेगी? इसी को स्पष्ट करते हुये आचार्य विद्यानन्द अपनी अष्टसहस्री में लिखते हैं कि
अन्तरङ्गस्यैव स्वसंविदितज्ञानस्यार्थता वस्तुता, न बहिरङ्गस्य प्रतिभासानहस्येत्येकान्ततोऽन्तरङ्गर्थतैकान्तः। तस्मिन्नभ्युपगम्यमानेऽखिलं बुद्धिवाक्यं हेतुवादहेतुवादानिबन्धनमुपायत्वं मृषैव स्यात्। यतश्च मृषा स्याद् अत एव प्रमाणाभासमेव प्रमाणस्य सत्यत्वेन व्याप्तत्वात्। मृषात्वेन प्रमाणाभासस्य व्याप्तेः। तच्च प्रमाणाभासं प्रमाणादृते कथं सम्भवेत्? तदसम्भवे तद् व्यवहारम् अवास्तम् एव अयं स्वप्नव्यवहारमिव संवृत्त्यापि कथं प्रतिपद्यते।
__ अर्थात् अन्तरङ्ग स्वसंविदित ज्ञान ही वास्तविक है, किन्तु प्रतिभासित होने योग्य बहिरङ्ग जड़ पदार्थ वास्तविक नहीं है। इस प्रकार के एकान्त को अन्तरङ्गार्थतैकान्त
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