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१६ : श्रमण, वर्ष ५९, अंक ३/जुलाई-सितम्बर २००८
बौद्ध धर्म अठारह निकायों में विभक्त हो गया। किन्तु मुख्य सम्प्रदाय दो ही थे - हीनयान और महायान। हीनयान को स्थविरवाद तथा सर्वास्तिवाद भी कहा जाता है। पुनः हीनयान अथवा सर्वास्तिवाद की दो शाखाएँ हैं - वैभाषिक एवं सौत्रान्तिक। सर्वास्तिवादियों के त्रिपिटक (संस्कृत) के ज्ञानप्रस्थान नामक ग्रन्थ पर जो टीका है, उसका नाम विभाषा है और उसके आधार पर विकसित होने के कारण इस शाखा का नाम वैभाषिक पड़ा। वैभाषिकों के अनुसार ज्ञान और ज्ञेय - दोनों सत्य हैं, मिथ्या नहीं। वे पदार्थ की सत्ता को स्वीकार करते हैं।
सूत्रान्त अथवा भगवान् बुद्ध के मूल वचनों को आधार बनाकर जिस दर्शन का विकास हुआ वह सौत्रान्तिक कहलाया।
महायान की भी दो शाखाएँ हैं - माध्यमिक और योगाचार। जिन्होंने मध्यममार्ग का अनुसरण किया वे माध्यमिक कहलाये। इनके अनुसार ज्ञेय तो असत्य है ही, ज्ञान भी सत्य नहीं है। इनका सिद्धान्त शून्यवाद के नाम से प्रसिद्ध है, किन्तु शून्यवाद का अर्थ पदार्थों का सर्वथा अभाव नहीं है। उनका मानना है कि वस्तु अनिर्वचनीय है। अर्थात् वस्तु न सत् है, न असत् है, न उभय रूप है और न ही अनुभय रूप।
महायान की ही दूसरी शाखा है - योगाचार। इसका दूसरा नाम विज्ञानवाद भी है। मैत्रेयनाथ, आर्य असंग और वसुबन्धु इस दर्शन के आचार्य हैं। यह बौद्ध दर्शन का विकसित रूप है। विज्ञानवाद के अनुसार एकमात्र विज्ञान ही परम सत्य है। बाह्यवस्तु विज्ञान का ही प्रतिबिम्ब है। विज्ञानवाद के पश्चात् ही बौद्धन्याय का विकास हुआ है और इसके प्रणेता है - आचार्य दिङ्नाग और आचार्य धर्मकीर्ति।
योगाचार सम्प्रदाय के अनुसार बाह्य पदार्थ की सत्ता ही नहीं है। उनके अनुसार मात्र अन्तरङ्ग पदार्थ अर्थात् विज्ञान की ही सत्ता है। इसीलिए इसे विज्ञानवाद के नाम से सम्बोधित किया जाता है। जहाँ सौत्रान्तिक मतानुयायी बाह्य पदार्थ को प्रत्यक्ष तो नहीं मानते हैं, किन्तु उसे वे अनुमेय अनुमान प्रमाण से जानने योग्य मानते हैं, वहीं विज्ञानवादियों का कहना है कि जब बाह्य अर्थ की ही सत्ता नहीं है तब उसे अनुमेय मानना भी उचित नहीं है। यत: बाह्य अर्थ की सत्ता ज्ञान पर आधारित है, अतः यथार्थ में ज्ञान की ही सत्ता है। बाह्यार्थ तो निःस्वभाव और स्वप्नवत् है।
योगाचार को स्वीकार करने वाले बौद्ध दार्शनिकों के अनुसार यद्यपि बाह्य पदार्थ की सत्ता नहीं है तथापि अनादिकाल से चली आ रही वासना के कारण विज्ञान का बाह्यार्थ रूप से प्रतिभास होता है। जैसे भ्रान्ति के कारण एक चन्द्र के स्थान पर
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