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________________ जैनागम में 'पाहुड' का महत्त्व : १३ नोआगमभाव पाहुड के प्रसंग में जयधवलाकार का कथन द्रष्टव्य है ... णोआगमदो भावपाहुडं दुविहं, पसत्थमप्पसत्थं च। पसत्थं जहा दोगंधियं पाहुडं। अप्पसत्थं जहा कलहपाहुडं। तत्थ दोगंधियपाहुडं दुविहं-परमाणंदपाहुडं, आणंदमेत्तिपाहुडं चेदि। तत्थ परमाणंददोगंधियपाहुडं जहा, जिणवइणा केवलणाणदंसणति (वि) लोयणेहि पयासियासेसभुवणेण उज्झियरायदोसेण भव्वाणमणवज्जबुहाइरियपणालेण पट्टविददुवालसंगवयणकलावो तदेगदेसो वा। अवरं आणंदमेत्तिपाहुडं। कलहणिमित्तगद्दह-जर-खेटयादिदव्वमुवयारेण कलहो, तस्स विसज्जणं कलहपाहुडं। अर्थात् नोआगम भावपाहुड प्रशस्त और अप्रशस्त दो प्रकार का है। प्रशस्त नोआगम भावपाहुड, जैसे-दो ग्रन्थ रूप पाहुड। अप्रशस्त नोआगम भावपाहुड, जैसे - कलहपाहुड। परमानन्दपाहुड और आनन्दपाहुड के भेद से दो ग्रन्थिकपाहुड दो प्रकार का है। केवलज्ञान और केवलदर्शनरूप नेत्रों से जिसने समस्त लोक को देख लिया है और जो राग-द्वेष से रहित है, ऐसे जिन भगवान् के द्वारा निर्दोष श्रेष्ठ विद्वान् आचार्यों की परम्परा से भव्यजनों के लिए भेजे गये बारह अंगे के वचनों का समुदाय अथवा एक देश परमानन्द दो ग्रन्थिकपाहुड कहलाता है। इसके अतिरिक्त शेष जिनागम आनन्दमात्र पाहुड है। गधा, जीर्णवस्तु और विष आदि द्रव्य कलह के निमित्त हैं इसलिए उपचार से इन्हें भी कलह कहते हैं। इस कलह के निमित्तभूत द्रव्य का भेजना कलहपाहुड कहलाता है। नोआगमद्रव्य ‘पाहुड' के सचित्त, अचित्त और मिश्र इन तीन भेदों का स्वरूप जयधवला में इस प्रकार कहा है ... 'तत्थ सचित्तपाहुडं णाम जहा कोसल्लियभावेण पट्टविज्जमाणा हयगयविलयायिया। अचित्तपाहुडं जहा मणि-कणय-रयणाईणि उवायणाणि। मिस्सयपाहुडं जहा ससुवण्णकरितुरयाणं कोसल्लियपेसणं। अर्थात् उपहाररूप से भेजे गये हाथी, घोड़ा और स्त्री आदि सचित्तपाहुड हैं। भेट स्वरूप दिये गये मणि, सोना और रत्न आदि अचित्तपाहुड हैं। स्वर्ण के साथ हाथी और घोड़े का उपहाररूप से भेजना मिश्रपाहुड है। ___ आचार्य जयसेन ने 'समयस्यात्मन: प्राभृतं समय-प्राभृतं' (गाथा-१ की टीका) और 'यथा कोऽपि देवदत्तो राजदर्शनार्थं किंचितसारभूतं वस्तुं राज्ञे ददाति तत्प्राभृतं भण्यते। तथा परमात्माराधकपरुषस्य निर्दोषिपरमात्मराजदर्शनार्थमिदमपि शास्त्रं प्राभृतम्। कस्मात् सारभूतत्वात् इति प्राभृत-.. शब्दस्यार्थः। '१० कहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525065
Book TitleSramana 2008 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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