SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 17
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२ : श्रमण, वर्ष ५९, अंक ३ / जुलाई-सितम्बर २००८ कओ तस्सलोचेउं, अंगोवंगपइण्णए पाहुड परियम्म- सुत्त पढमाणुओग पुव्वगय चूलिया चेव सुत्त थुइ धम्मकहाइयं णिच्चकालं अंचेमि पूजेमि .... यहां 'पाहुड' शब्द अंग, उपांग, प्रकीर्णक के बाद तथा परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका से पूर्व आया है। इससे ज्ञात होता है कि 'पाहुड' आगम की एक स्वतन्त्र विद्या या आगमांश है। आचार्य कुन्दकुन्द ही ऐसे एक मात्र आचार्य हैं जिन्होंने आगमों के विवरण में 'पाहुड' का स्वतन्त्र रूप में उल्लेख किया है। अन्यत्र कहीं ऐसा उल्लेख देखने में नहीं आया। जयधवलाकार ने 'पाहुड' के संस्कृत रूपान्तर 'प्राभृत' शब्द के विषय में इस प्रकार लिखा है ... 'प्रकृष्टेन तीर्थंकरेण आभृतं प्रस्थापितं इति प्राभृतम् । प्रकृष्टेराचार्यैर्विद्यावित्तवद्भिराभृतं धारितं व्याख्यातमानीतमिति वा प्राभृतम् । ४ 'जो प्रकृष्ट अर्थात् तीर्थंकर के द्वारा आभृत अर्थात् प्रस्थापित किया गया है, वह प्राभृत है अथवा जिनका विद्या ही धन है ऐसे प्रकृष्ट आचार्यों के द्वारा जो धारण - किया गया है अथवा व्याख्यान किया गया है अथवा परम्परा रूप से लाया गया है, वह प्राभृत है । ' गोम्मटसार' में 'पाहुड' और 'अहियार' को एकार्थक बतलाते हुए 'पाहुड' के अधिकार को 'पाहुड- पाहुड' कहा है। एक पाहुड में चौबीस 'पाहुड - पाहुड' होते हैं। धवलाकार (षट्खण्डागम के टीकाकार) 'एक पाहुड' श्रुतज्ञान का प्रमाण 'संख्यात पाहुड - पाहुड' बताया है। नंदीसूत्र में कहा गया है- से णं अंगट्ठाए बारसमे अंगे, एगे सुयक्खंधे, चोद्दसपुव्वाइं, संखेज्जा वत्थु, संखेज्जाचुल्लवत्थु, संखेज्जा पाहुडा, संखेज्जा पाहुडपाहुडा, संखेज्जाओ पाहुडिआओ, संखेज्जाओ पाहुडपाहुडिआओ, संखेज्जाई पयसहस्साइं पयग्गेणं, संखेज्जा अक्खरा...।" अर्थात् बारहवें अंग दृष्टिवाद में एक श्रुतस्कन्ध, चौदहपूर्व, संख्यात वस्तु, संख्यात चुल्लवस्तु, संख्यात पाहुड, संख्यात पाहुड- पाहुड, संख्यात पाहुडिया, संख्यात पाहुड - पाहुडिया, संख्यात हजार पद और संख्यात अक्षर होते हैं। आचार्य यतिवृषभ 'कसायपाहुड' के चुण्णिसुत्त में पाहुड की निरुक्ति करते हुए कहते हैं... 'जम्हा पदेहि पुदं (फुडं) तम्हा पाहुडं।' जो पदों से स्फुट अर्थात् व्यक्त है, वह पाहुड कहलाता है। जयधवलाकार वीरसेन स्वामी ने उक्त चुण्णिसुत्त की टीका में लिखा है ... 'एदेहि पदेहि पुदं (फुडं) वत्तं सुगममिदि पाहुडं । ' इन पदों से जो स्फुट अर्थात् व्यक्त या सुगम है, वह पाहुड (पदस्फुट) कहलाता है। यहाँ पाहु का अर्थ स्पष्ट रूप से पद की सुगम व्याख्या बताया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525065
Book TitleSramana 2008 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy