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________________ श्रमण, वर्ष ५९, अंक ३ जलाई-सितम्बर २००८ जैनागम में 'पाहुड' का महत्त्व डॉ० ऋषभचन्द्र जैन* जैन परम्परा में आगमों का विशेष महत्त्व है। यहाँ आगम को जिनवचन माना गया है। जिनेन्द्र भगवान् की अर्थरूप वाणी को सुनकर उनके गणधरों ने जिन शब्द रूप ग्रन्थों की रचना की उन ग्रन्थों को अंग कहा गया। गुरु परम्परा से आगत होने के कारण उन्हें आगम नाम दिया गया। संख्या में बारह होने के कारण वे द्वादशांग भी कहलाते हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं- १. आचारांग, २. सूत्रकृतांग,३. स्थानांग, ४. समवायांग, ५. व्याख्याप्रज्ञप्ति,६.ज्ञाताधर्मकथा,७. उपासकदशांग,८. अन्तकृद्दशा,९. अनुत्तरोपपातिकदशा, १०. प्रश्नव्याकरण, ११. विपाकसूत्र और १२. दृष्टिवाद। . दृष्टिवाद जैन आगम का बारहवाँ अंग है। इसके पांच भेद हैं - १. परियम्म (परिकर्म), २. सुत्त (सूत्र), ३. अणुओग (अनुयोग), ४. पुव्वगयं (पूर्वगत) और ५. चूलिया (चूलिका)। इनमें परिकर्म के सात, सूत्र के बाईस, पूर्व के चौदह, अनुयोग के दो और चूलिका के पाँच भेद हैं। पूर्व के चौदह भेदों के नाम इस प्रकार हैं- १. उत्पादपूर्व, २. अग्रायणीयपूर्व, ३. वीर्यानुवादपूर्व, ४. अस्तिनास्तिप्रवादपूर्व, ५. ज्ञानप्रवादपूर्व, ६. सत्यप्रवादपूर्व, ७. आत्मप्रवादपूर्व, ८. कर्मप्रवादपूर्व, ९. प्रत्याख्यानपूर्व, १०. विद्यानुवादपूर्व, ११. कल्याणप्रवादपूर्व, १२. प्राणावायपूर्व, १३. क्रियाविशालपूर्व और १४. लोक-बिन्दुसारपूर्व। प्रत्येक पूर्व वस्तु अधिकारों में विभक्त है। चौदह पूर्वो की वस्तुओं की कुल संख्या एक सौ पंचानवे है। प्रत्येक वस्तु में बीस पाहुड होते हैं। इस प्रकार पाहुडों की कुल संख्या (१९५ x २० = ३९००) तीन हजार नौ सौ बतलायी गयी है। पूर्वो का परिमाण ग्यारह अंगों से बहत विशाल था। यहाँ तक कहा जाता है कि शेष अंगों का ज्ञान भी पूओं में समाहित था। व्यवहारभाष्य में कहा गया है कि पहले आचारप्रकल्प नौवें प्रत्याख्यान पूर्व में गर्भित था, वहीं से लेकर उसे आचारांग में रखा गया। ‘पाहुड' शब्द जैन परम्परा का विशिष्ट पारिभाषिक शब्द है, जिसका प्रयोग यहाँ विशेष अर्थ में हुआ है। इस प्रसंग में आचार्य कुन्दकुन्दकृत सुदभत्ति' की अंचलिका में 'पाहुड' शब्द की अवस्थिति द्रष्टव्य है - 'इच्छामि भंते! सुदभत्ति काउस्सग्गो * निदेशक, प्राकृत जैनशास्त्र और अहिंसा शोध संस्थान, बासोकुण्ड, वैशाली-८४४१२८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525065
Book TitleSramana 2008 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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