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________________ १० : श्रमण, वर्ष ५९, अंक ३/जुलाई-सितम्बर २००८ अपने सम्बन्धों को खराब कर रहा होता है। किन्तु यदि यह कहा जाय कि 'जहाँ तक मैं समझता हूँ, अमुक ने अक्लमंदी नहीं की तो वह व्यक्ति पर बेवकूफी का ठप्पा न लगा कर उसके प्रति अपनी सीमित प्रतिक्रिया को अभिव्यक्ति दे रहा होता है। जरूरी नहीं कि और लोग भी उसे ऐसा ही समझें। ऐसे में अन्य विकल्प खुले रहते हैं। वस्तुतः अधिकतर लोग अपने ही पूर्वाग्रहों में कैद हो जाते हैं यह स्पष्ट ही अनुचित है। अतः अपनी बात रखते समय 'जहाँ तक मैं समझता हूँ या 'मेरा अपना मत है' ऐसे वाक्यांशों को अपने कथनों में जोड़ देना, न केवल अपने ज्ञान की सीमा बताना है, बल्कि अन्य लोगों को अपनी बात रखने के लिए स्वतंत्र करना भी है। मत और भी हो सकते हैं और सभी मतों का ज्ञाता कोई नहीं होता। इसलिए यह आवश्यक है कि हम अपने मत की सीमा ‘जहाँ तक मैं समझता हूँ' कह कर स्वीकार करें। स्याद्वाद का अनुसरण इसी में है। इसी प्रकार जब हम कहते हैं कि अमुक बात ‘एक हद तक' सही नहीं लगती तो हम सामने वाले की बात का पूरी तरह खंडन नहीं कर रहे होते और उससे सम्बन्धित अपने सीमित ज्ञान का ही प्रदर्शन कर रहे होते हैं। हर बात की अपनी एक सीमा है। कोई भी बात पूर्णत: सत्य नहीं होती। केवल एक हद तक ही उसे ठीक समझा जा सकता है, तो क्यों न हम किसी की बात को निर्णयात्मक तरीके से अस्वीकार करने के बजाय 'एक हद तक' स्वीकार कर लें। ऐसा करने में हम अपनी उदारता का प्रदर्शन तो करते ही हैं, एक उस दार्शनिक सत्य की अभिव्यक्ति भी करते हैं जिसके अनुसार हमारी वार्ता सदैव सापेक्ष है- देश, काल और पात्र से। जैन दर्शन हर वाक्य के साथ 'स्यात्' जोड़ने का आग्रह करता है। आज 'स्यात्' शब्द चलन में नहीं है। दूसरे 'स्यात्' का अर्थ अक्सर 'शायद' लिया जाता है, लेकिन ऐसा नहीं है। जैन दर्शन में यह अपेक्षा-दृष्टि के अर्थ में सन्दर्भित है। शायद बात की निर्णायकता को तो बेशक समाप्त करता है, लेकिन उसकी 'सत्यता' पर उँगली उठाता हुआ भी लगता है। लेकिन बात किसी हद तक सत्य भी है। एक देश, काल और परिस्थिति में शायद वही सत्य हो। ऐसे में 'स्यात्' की बजाय अन्य वाक्यांशों से भी काम चलाया जा सकता है- “एक हद तक', 'मै समझता हूँ, मुझे ऐसा प्रतीत होता है' इत्यादि। लेकिन इन वाक्यांशों का अपनी वार्ता में केवल अपनी चतुराई के लिए प्रयोग न करें बल्कि बात की सत्यता की अभिव्यक्ति के लिए करें। 'सापेक्षता' के सन्दर्भ में जब इसका प्रयोग किया जाता है तभी 'स्यात्' का दार्शनिक मूल्य बरकरार रह पाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525065
Book TitleSramana 2008 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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