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________________ कीट-रक्षक सिद्धान्त का नैतिक आधार : जैन दर्शन की मान्यता है कि अस्तित्व सहभागितापूर्ण होता है । अस्तित्व की एकलता बहुतत्त्ववादी जैन दर्शन में अप्राप्य है । जब अस्तित्व अनेकात्मक है तो यह सिद्ध है कि जीवन भी विविधरूपी है। चेतना के आधार पर किसी एकरूपीय जीवन को किसी अन्यरूपीय जीवन से श्रेष्ठ या निम्न नहीं ठहराया जा सकता है। केवल इतना कहा जा सकता है कि जीवन-जीवन समान है, ठीक वैसे ही जैसे दूसरी कक्षा पास करने वाले विद्यार्थी की खुशी और आठवीं कक्षा पास करने वाले विद्यार्थी की खुशी में मात्रा- भेद नहीं किया जा सकता है, क्योंकि उनमें मात्र कक्षा-भेद हैं। परीक्षा में 'पास होने की खुशी' दोनों में समान है। इसी तरह दो प्रकार के पृथक् जीवनों का जीवनगत मूल्य समान है और इस समानता के आधार से एक की अपेक्षा दूसरे को श्रेष्ठ मान लेना नैतिक दृष्टि से अवांछित है- चाहे वह कीट का जीवन ही क्यों न हो । दूसरी बात यह है कि 'व्यर्थ की उत्पत्ति' के रूप में देखे जाने वाले कीटों को जब स्वयं की इच्छापूर्ति के लिये समाप्त कर दिया जाता है तो व्यक्ति की चेतना भी परिवर्तन नियम की भाँति उससे (हिंसित) आच्छादित हो जाती है। १७ भले ही किसी प्राणी की की गयी हत्या के कारण रक्त के छीटें चाहे जमीन पर गिरे दिखते हों, लेकिन बंधन के कर्म - परमाणु रूपी छीटें हिंसा करने वाले व्यक्ति की चेतना पर भी गिरते हैं और उसकी चेतना को कैदी बना लेते हैं। यह चेतना का बंधन, जंजीरों और सलाखों के बंधन से कहीं अधिक मजबूत होता है। यह अदृश्य और समयावधिगत होता है । १८ जैन दर्शन की मान्यता है कि मौलिक ज्ञान के अभाव में व्यक्ति उन जंजीरों को देख नहीं पाता है जो अदृश्य रूप में उसकी चेतना को बंधक बनाने के लिये तैयार हैं। अतः इन अदृश्य जंजीरों से बचने के लिए व्यक्ति को प्राणीहिंसा, जिसमें कीटनाश भी सम्मिलित है, न करने की सलाह से जैन साहित्य भरा हुआ है। यह तो स्थापित तथ्य है कि व्यक्ति सभी प्रकार के कार्य स्वयं के लिये या अपने प्रियजन के लिये करता है । किन्तु उसमें यह विवेक नहीं होता कि वह खुद के रूप में जिसे मान रहा है वह उसका शरीर, मन आदि नहीं है, अपितु उसकी अविनाशी चेतना है।" इस चेतना को स्वयं का न मानकर वह शरीरादि को ही स्वयं का मानता है और उसी के लिये, उसी के सुख-चैन के लिये जीवन भर चाहे अनचाहे कार्यों को करता रहता है। इसका परिणाम यह होता है कि जो उसकी अपनी वस्तु है, उसकी दुर्दशा होती रहती है। जैन दर्शन व्यक्ति को उसका वास्तविक 'स्वामी' बनाना चाहता है, उसके स्वामित्व को लौटाना चाहता है। यदि व्यक्ति को यह पता चले कि वह कीटादि की हिंसा करके मात्र दिखावटी स्वामी ही बन पाएगा जो यहाँ कुछ सालों के लिये ही है, बदले में उसे स्वयं गुलाम बनना है तो शायद वह स्वयं के लिये या जिसे वह स्वयं जैसा प्रिय मानता है, उनके लिये हिंसक कार्यों को करना बंद कर दे । किन्तु मनुष्य में यह विवेक कब आएगा, यह कहना संभव नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525065
Book TitleSramana 2008 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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