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श्रमण, वर्ष ५९, अंक ३/जुलाई-सितम्बर २००८
को अतिरिक्त महत्त्व दिया।३ पूरी पृथ्वी और अब तकनीकी विकास के बाद तो अन्य ग्रह भी जैसे उसी की इच्छाओं की पूर्ति के लिये हैं। वह जहाँ उचित समझे वहाँ बांध बनाए, कारखाने लगाए, नदियों को मोड़ दे, बस्ती बसाए और चाहे जैसे प्रयोग-अनुसंधान करे। प्रकृति की सम्पदा का जैसे उसने एकाधिकार पा लिया हो। क्या पृथ्वी का मात्र मनुष्य ही अधिकारी है? वे सब अन्य प्राणी जो मक, निरीह, दुर्बल और अबोध हैं क्या पृथ्वी पर उनका कोई अधिकार नहीं है? अपने दिशाहीन किन्तु गर्वीले प्रयोजनों की पूर्ति हेतु मनुष्य को हवा, पानी, जंगल, नदी, पहाड़ आदि से मनचाहा खिलवाड़ करने की स्वीकृति क्या नैतिक मानी जा सकती है? मनुष्य ने स्वीकृति की प्रतीक्षा कहाँ की? उसने वह सब कुछ किया जो उसे नहीं करना चाहिए था। प्रकृति से इस तरह का खिलवाड़ कर सकने के पीछे मनुष्य की यह धारणा आधार रही है कि प्रकृति निर्जीव और मूक पदार्थ है, एक वस्तु की तरह है। इसलिये उसके साथ कैसा भी व्यवहार क्यों न किया जाय, सब सही है।
___जैन धर्म-दर्शन मनुष्य द्वारा प्रकृति को निर्जीव एवं मूक मानने के विरुद्ध है।१४ उसकी स्पष्ट घोषणा है कि अनेक सूक्ष्म, अगोचर एवं लघु जीवों की चेतना से यह प्रकृति स्पन्दित है। इसमें चारों ओर जीवन, प्राण छलछला रहा है, वहाँ भी जहाँ तक दिखाई देता है और वहाँ भी जहाँ तक दिखाई नहीं देता। ऐसी स्थिति में इसे निर्जीव कैसे कहा जा सकता है? इसलिये जैन दर्शन चलने-फिरने से लेकर बड़े से बड़ा काम करने में प्रकृति की सजीवता को ओझल नहीं होने देता।१५ उसका आग्रह है कि मनुष्य इस सजीवता के संदर्भ में ही अपने रहने-सोने-खाने-पीने और बातचीत के तौरतरीके अपनाए। जैन दर्शन के लिये इस 'सजीवता की शैली' को अपनाना मात्र आदर्श नहीं, अपितु व्यवहार की अनुभूति है। एक सुदीर्घ परम्परा कई शताब्दियों को लाँघकर हमारे आणविकी युग में भी प्रवहमान है जो यह सिद्ध करती है कि प्रमाद के कारण किसी बात को न अपना पाना उस बात की निरर्थकता प्रतिपादित नहीं करती है, अपितु उसकी अक्षमता दर्शाती है जो उसे अपना न सकी। जैन परम्परा जीवन को सधे धरातल पर, स्पन्दित प्रकृति में जाग्रत होकर जीने की परम्परा है जिसमें पर्यावरण और प्राणी दोनों ही न केवल सुरक्षित हैं, अपितु निर्भय जीवन बिता पाने के लिये स्वतंत्र एवं अधिकारी हैं। विश्व के किसी धर्म-दर्शन ने प्राणियों को ऐसा शाश्वत अधिकारपत्र नहीं दिया है जैसा जैन धर्म-दर्शन ने दिया है।
___ जब सम्पूर्ण प्रकृति एवं प्राणियों के प्रति जैन धर्म-दर्शन का इतना अपनत्वपूर्ण दृष्टिकोण है, तो कीटादि के प्रति भी वैसा ही अपनत्वपूर्ण होगा, इसमें कोई संदेह नहीं। इस अपनत्वपूर्ण दृष्टिकोण का आधार मात्र भावनात्मक नहीं है अपितु इसमें नैतिक उत्तरदायित्व निहित है।६
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