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________________ : श्रमण, वर्ष ५९, अंक ३ / जुलाई-सितम्बर २००८ आधुनिक अनुसंधानों ने यह तो प्रतिपादित कर ही दिया है कि चाहे कीटनाश से व्यक्ति का आगामी जीवन बिगड़े या न बिगड़े किन्तु उसका वर्तमान जीवन तो बिगड़ ही जाएगा, बल्कि बिगड़ रहा है। कीटनाश से जैविक-चक्र में जो व्यतिक्रम आया है वह चौकाने के साथ-साथ हमें चेताने वाला भी है कि यदि यही गति रही तो कीटनाश हमारे स्वनाश में परिवर्तित हो जाएगा । कीट जिसे भोजन के रूप में ग्रहण करते हैं, कीटों के विनाश के कारण वे भोजन में विष व प्रदूषण उत्पन्न करेंगे। इससे अन्य जीव-जन्तु प्रभावित होंगे क्योंकि कीट जिनके भोज्य थे वे अपने भोजन बिना स्वयं नष्ट होंगे अथवा असंतुलित व्यवहारी होकर जैसा तैसा खायेंगे। इससे विकृतियाँ बढ़ेंगी और वे मनुष्य में बीमारी और असामान्यता के रूप में प्रगट होंगी। अतः कीटनाश व्यक्ति के स्वयं के नाश का आमंत्रण है। ६ यदि कीट-रक्षक सिद्धांत के नैतिक पक्ष के आधारों को एक क्षण के लिये कमजोर मान भी लिया जाय, तो भी यह कहना गलत नहीं होगा कि कीटों की रक्षा उसके हित के लिए भले न की जाय, किन्तु उसकी रक्षा से यदि स्व-रक्षा होती है तब तो कीरक्षा को स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिये । स्वयं की रक्षा से अन्य की भी रक्षा हो जाती हो तो ऐसी स्थिति में 'स्वार्थ' भी वरेण्य है, अनुपालनीय है । यह सबसे बड़ी नैतिकता होगी। जैन धर्म-दर्शन इस 'स्व' में समस्त 'पर' को देखने की चेष्टा है। 'एक को जानना सबको जानना है'' का सूत्र इसी मशाल को प्रज्वलित किए हुए है। जैन धर्मदर्शन जीवन को संग्राम नहीं मानता, क्योंकि संग्राम मारकाट, हार-जीत, छल-कपट और गर्व - हताशा को चित्रित करता है, वह तो जीवन को ऐसा ग्राम मानता है जहाँ सभी बिरादरियों में मैत्री, करुणा, सौहार्द के साथ शांति हो, जहाँ समता की चौपाल हो । आनेवाले मनुष्य को संग्राम की नहीं ऐसे ही ग्राम की आवश्यकता होगी जिसका अभी तक चाहे निर्माण न हुआ हो किन्तु उसका नक्शा जैन धर्म-दर्शन के पास सुरक्षित है। जब हम सब इस नक्शे के अनुसार जीवन को संग्राम बनाने के बजाय ग्राम बनाने का सच्चा संकल्प लेंगे तभी वैश्विक स्तर पर समता और शांति की स्थापना होगी। सन्दर्भ : १. से दिट्ठपहे मुणी । आयारो, ३/१/२/३७, पृ० १३१ २. वही, ९/४/१६ पृ० ३४१ ३. समणसुत्तं, १४८ 4. Titus, Living Issues, P. 78 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525065
Book TitleSramana 2008 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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