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________________ ३८ : श्रमण, वर्ष ५९, अंक २ / अप्रैल-जून २००८ है। है। यह परम समाधि रूप है और मुक्ति का अनन्तर कारण है। यही कारण है कि जैन आचार्यों ने ध्यान के सम्बन्ध में पर्याप्त चिन्तन किया है और उस पर स्वतंत्र ग्रन्थ भी लिखे हैं। ध्यान के सम्बन्ध में लिखे गये ग्रन्थों में 'झाणज्झयण' अपरनाम 'ध्यानशतक' प्राचीन है। झाणज्झयण या ध्यानशतक प्रस्तुत ग्रन्थ के नाम को लेकर दो अभिमत प्राचीनकाल से देखने में आते हैं । ग्रन्थकार ने स्वयं इसे ध्यानाध्ययन ( झाणज्झयण) कहा है। जबकि इसके प्रथम टीकाकार आचार्य हरिभद्रसूरि ने आवश्यकनिर्युक्ति की टीका में इस ग्रन्थ को ध्यानशतक कहा है। वैसे ये दोनों नाम सार्थक ही प्रतीत होते हैं। प्रथम तो लेखक ने ग्रन्थ की प्रथम मंगल गाथा में 'झाणज्झयणं पवक्खामि' कहकर ग्रन्थ को जो ध्यानाध्ययन नाम दिया है वह इसलिए दिया है कि उन्होंने अपने विशेषावश्यक भाष्य में आवश्यकसूत्र पर भाष्य लिखने की प्रतिज्ञा की थी। नंदीसूत्र में आवश्यकसूत्र के छः अध्ययनों को छः शेष स्वतंत्र ग्रन्थों के नाम से ही उल्लेखित किया गया है। उसमें पाँचवाँ आवश्यक कायोत्सर्ग रूप है। कायोत्सर्ग मूलतः ध्यान की ही एक अवस्था है, अतः उस अध्ययन पर भाष्य की दृष्टि से लिखी गयी गाथाओं को ध्यानाध्ययन कहा गया है। विशेषावश्यकभाष्य यद्यपि आवश्यक सूत्र के छहों अध्ययनों पर लिखा जाना था, किन्तु प्रस्तुत विशेषावश्यकभाष्य सामायिक अध्ययन पर ही सीमित होकर रह गया, शेष अध्ययनों पर नहीं लिखा जा सका। अतः एक संभावना यह भी है कि आचार्य जिनभद्रगणि की रुचि ध्यान में रही हो। इसलिए उन्होंने सामायिक के अध्ययन के बाद ध्यानाध्ययन पर भाष्य गाथाएँ लिखने का प्रयत्न किया हो और उन्हीं गाथाओं ने ही आगे चलकर एक स्वतंत्र ग्रन्थ का रूप ले लिया हो। इसलिए लेखक के द्वारा सूचित ध्यानाध्ययन नाम प्रामाणिक लगता है। आचार्य हरिभद्र ने प्रतिक्रमण अध्ययन की नियुक्ति की टीका में 'चडविहं झाणं' सूत्र पर टीका लिखते हुए ये गाथाएँ उद्धृत की हैं। हम देखते हैं कि आवश्यक नियुक्ति की वृत्ति में आचार्य हरिभद्र ने इन गाथाओं को उसी सूत्र की वृत्ति में उद्धृत किया है। इससे ऐसा अवश्य लगता है कि ये गाथाएँ भाष्य रूप हैं। यहाँ प्रारम्भ में ध्यानशतक नाम देकर बाद में झाणज्झयणं की वृत्ति भी लिखी है। अतः ध्यानशतक यह नामकरण हरिभद्र का ही है। क्योंकि उन्होंने अपने अनेक ग्रन्थों का नामकरण गाथा या श्लोक संख्या के आधार पर किया है, यथाअष्टकप्रकरणम्, षोडशकप्रकरणम्, विंशतिविंशिका, द्वात्रिंशिका, पंचाशकप्रकरणम् For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.525064
Book TitleSramana 2008 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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