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५६ : श्रमण, वर्ष ५८, अंक ४/अक्टूबर-दिसम्बर २००७
संभव नहीं है कि जड़ पदार्थों में भी अवचेतन मन उपस्थित हो, भले वह अवयवों के अभाव में उसकी सतह के साथ कोई संपर्क स्थापित न कर सकें । १४
श्री अरविन्द कहते हैं कि यदि हम निष्पक्ष रूप से अवलोकन करें तो देखेंगे कि हमारे अंदर एक प्रकार की प्राणिक चेतना है जो शरीर के कोषाणुओं में और स्वचालित प्राणिक क्रियाओं में काम करती है जिसके कारण हम उद्देश्यपूर्ण गतियों से गुजरते हैं और उन आकर्षणों- विकर्षणों के अधीन होते हैं जो हमारे मन के लिए अजनबी होते हैं। पशुओं में यह प्राणिक चेतना और भी अधिक महत्त्वपूर्ण चीज होती है। वनस्पतियों में यह अन्तर्भाषात्मक रूप में स्पष्ट होती है। वनस्पति की ललक और सिकुड़न, उसके सुख-दुःख, उसकी नींद और जागती हुई अवस्था और वह विचित्र जीवन जिसकी सच्चाई जगदीश चन्द्र बसु ने कठोर वैज्ञानिक पद्धति से प्रकाश में लायी, ये सब चेतना की गतिविधियां हैं। "
किन्तु यहां प्रश्न यह उठता है कि क्या उस चीज का सोपान जिसे हम चेतना कहते हैं, वनस्पति के साथ ही समाप्त हो जाता है? अगर ऐसा है तो हमें स्वीकार करना होगा कि जीवन और चेतना की शक्ति जड़त्व के लिए मूलतः विजातीय है। किन्तु श्री अरविन्द कहते हैं कि चेतना का अस्तित्व वनस्पति जगत् के साथ ही समाप्त नहीं होता है ।" वे अचानक इतनी बड़ी खाई स्वीकार करने के पक्ष में नहीं हैं। वे कहते हैं कि विचार को यह अधिकार है कि वह ऐसी अवस्था में वहां एकता को मान ले जहां प्रपंच की सभी श्रेणियाँ उस एकता को स्वीकार करती हों और केवल एक श्रेणी ऐसी हो जो उसे नकारती तो नहीं है, पर उसमें यह औरों से अधिक छिपी हुई हो। और, अगर यह माने कि यह एकता अविच्छिन्न है तो हम उस बात पर आ पहुंचते हैं कि जगत् में काम करने वाली शक्ति के जितने भी रूप हैं उन सबमें चेतना का अस्तित्व है। चाहे सभी रूपों में सचेतन या अतिचेतन पुरुष का निवास न भी हो फिर भी उन रूपों में सचेतन शक्ति विद्यमान रहती है जिसमें उसके बाहरी अंग भी प्रत्यक्ष या निष्क्रिय रूप में भाग लेते हैं। " पुनश्च जड़वादी जड़वस्तुओं से चेतना की उत्पत्ति की बात कहते हैं किन्तु यदि उनमें चेतना न हो तो कैसे चेतना की उत्पत्ति हो सकती हैं बालू से तेल नहीं निकलता है। उसके अतिरिक्त जिस क्षण भौतिक पदार्थ अपने को चेतना में परिवर्तन करते हैं, उस क्षण उनका स्वतंत्र अस्तित्व समाप्त हो जाता है, इससे निष्कर्ष यही निकलता है कि तथाकथित जड़ पदार्थ में चेतना प्रसुप्त रूप में विद्यमान रहती है। अब यदि जड़ वस्तुओं में चेतना विद्यमान है तो इससे दो बातें स्पष्ट होती हैं कि 'चेतना की एकमात्र सत्ता है' एवं दूसरा 'चेतना सर्वव्यापी है।' प्रश्न उठता है कि चेतना अणु है या विभु है? श्री अरविन्द का कहना है कि उसे किसी एक सीमा में नहीं बांधा जा सकता। वह सूक्ष्म से सूक्ष्मतम या अणु से अणुतम एवं महान से