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जैन दर्शन एवं श्री अरविन्द के दर्शन में चेतना का स्वरूप : एक ... :
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महानतम है।८ ब्रह्म स्वयं को कीट के रूप में अभिव्यक्त करते समय न तो स्वयं सूक्ष्म होता है न ही ब्रह्माण्ड के रूप में अपने को अभिव्यक्त करते समय महान हो जाता है। श्री अरविन्द कहते हैं कि ब्रह्म वह चेतना है जो सभी अस्तित्ववान सत्ताओं में विद्यमान है। तुलनात्मक सर्वेक्षण
संक्षेप में हम कह सकते हैं कि जहां जैन दर्शन में जड़तत्त्व की चेतना से पृथक् सत्ता स्वीकार की गयी है वहीं श्री अरविन्द के दर्शन में तथाकथित जड़त्व को चेतना या ब्रह्म की अभिव्यक्ति स्वीकार किया गया है तथा चेतना से पृथक् जड़तत्त्व को कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं प्रदान किया गया है। जैन दर्शन में जहां जड़तत्त्व चेतना की सर्वव्यापकता के लिए बाधा उत्पन्न करता है वहीं श्री अरविन्द के दर्शन में तथाकथित जड़तत्त्व चेतना का ही एक रूप होने के कारण चेतना की सर्वव्यापकता को स्थापित करता है। जैन दर्शन जहाँ चेतना को शरीर-परिमाणी मानता है, वहीं श्री अरविन्द चेतना को शरीर-परिमाणी या अणु या विभु किसी भी सीमा से आबद्ध न कर उसे इन सभी रूपों में विद्यमान मानने के साथ-साथ इसके परे भी उसकी सत्ता स्वीकार करते हैं।
श्री अरविन्द जैन मान्यता (जैविक स्तर पर) के समान चेतना में परिमाणात्मक भेद स्वीकार करते हैं, किन्तु उनकी स्थिति जैन मान्यता से थोड़ी भिन्न है। श्री अरविन्द के अनुसार यह भेद 'सीमित मन' की विभाजन-शक्ति के कारण है न कि अतिमानसिक दृष्टि से चेतना में कोई परिमाणात्मक या गुणात्मक भेद है। जैनों ने जीव को ज्ञाता, कर्ता एवं भोक्ता बतलाया है और सक्रियता को चेतना का एक अंग स्वीकार किया है। श्री अरविन्द इस बिन्दु पर जैन मान्यता के काफी निकट हैं और सक्रियता को चेतना का ही एक पक्ष स्वीकार करते हैं। संदर्भ :
१.
३.
सूत्रकृतांग टीका, १/१/८ उपयोगो लक्षणम्। तत्त्वार्थसूत्र, २।८ चेतना लक्षणो जीवः। षड्दर्शन समुच्चय पर गुणरत्न की टीका, ४७ तत्त्वार्थसूत्र, २/९ प्रमाणनयतत्त्वालोक, २/७
प्रवचनसार,१०
The Life Divine, Vol. I. P. 2