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________________ ५० : श्रमण, वर्ष ५८, अंक ४/अक्टूबर-दिसम्बर २००७ मौलिक रूप में कोई परिवर्तन नहीं किया। इसका कारण यह है कि वास्तव में जैन धर्मावलम्बी और चित्रकार प्रारम्भ से ही तीर्थंकरों, देवी-देवताओं, जैन मुनि इत्यादि के चित्रण में प्रतिमाशास्त्र में बताए लक्षणों का ज्यों का त्यों पालन करते रहे हैं। सम्भवत: यही कारण है कि ब्राह्मण धर्मीय देवताओं के चित्रण में भी वे आवश्यकता से अधिक सजग रहे। इसी समय में मिले अन्य साक्ष्यों से पता चलता है कि जैन देवी-देवताओं की तरह ब्राह्मण धर्मीय देवताओं के रूप भी निश्चित थे। प्रस्तुत पट्ट में गणेश जी की जैसी परिकल्पना है वैसा ही रूप अन्य उदाहरणों में देखने को मिलता है। इसी प्रकार का अंकन चिन्तामणी यंत्र में है यंत्र के एक ऊपरी कोने में गणेश की आकृति है जिसे जैन परम्परा में पार्श्व यज्ञ के रूप में स्वीकार किया हया है।१२ लेकिन मूलत: यह अजैन बिम्ब है इस चिन्तामणि यंत्र के गणेश तथा प्रस्तुत विजय यन्त्र के गणेश की आवृत्ति में निश्चित साम्य है। शत्रुन्जय महात्म्य (१४६८ A.D.) पोथी की गणेश आकृति भी इसी दृष्टि से उल्लेखनीय है। तीनों ही स्थानों पर गणेश के बिम्ब एक जैसे हैं। इससे ऐसा लगता है कि इन देवताओं के स्वरूप भी निश्चित होते थे। भारत कला भवन में संग्रहीत स्तुतियों में भी देवी-देवता हैं। ये देवी-देवता बार-बार आते हैं। ऐसे चित्रण ही प्रस्तुत पट्ट चित्र के स्रोत हो सकते हैं। यहाँ पर एक उल्लेखनीय बात यह है कि इन सभी देवी-देवताओं को चित्रकार ने सवाचश्मी युक्त .. चेहरे बनाये हैं जिनमें परली आँख बाहर निकली हुई है। जैन चित्रणों में इस प्रकार का स्वरूप उप-देवताओं के लिए प्रयुक्त होता था। इसका उदाहरण अनेक ताडपत्रीय पोथियों में प्रयुक्त आकृतियों से मिलता है। अत: जैन परम्परा के अनुसार उन्हें उसी परम्परा में चित्रित किया गया है। दूसरी तरफ तीर्थंकर आकृतियों को विशेष रूप से कायोत्सर्ग की स्थिति से लेकर परवर्ती सभी चित्रों में पूरे दो चश्मी चेहरो के साथ दिखलाया गया है। इस विवेचना से एक बार फिर यह सिद्ध होता है कि उपर्युक्त प्रकार के दोहरे मानदण्ड एक निश्चित परम्परा व प्रतिक्रिया के अन्तर्गत ही हुए हैं। कला भवन की स्तुति-समुच्चय में भी केवल एक स्थान पर दो चश्मी चेहरा प्राप्त हुआ है। यह नवग्रह पैनल में सूर्य की आकृति है। इसी प्रकार १४ स्वप्नों वाले पैनल में भी लक्ष्मी की आकृति दो चश्मी बनाई गयी है।५ ये सभी अंकन निश्चित अर्थ वाले थे। एक और सूरीमन्त्र पट्ट में यंत्र के ऊपरी कोने में घोड़े पर सवार काली तथा भैरव की आकृतियाँ हैं। निश्चित ही इन देवी-देवताओं को जैन धर्म में निश्चित उद्देश्य से अपनाया गया और इनके सम्बन्ध को धर्म के साथ जोड़ा गया, लेकिन इनके रूप विधान ब्राह्मण, शैव, शाक्त सम्प्रदायों के अनुसार ही रहे। मूर्तिशास्त्र के अन्तर्गत ही शंकर के भैरव रूप को दिखाने के लिए नृत्य की मुद्रा में गले में नरमुण्डों की माला है। कमर में बाघचर्म एवं हाथ में डमरु तथा दूसरे हाथ में आयुध पकड़े हैं। इस प्रकार
SR No.525062
Book TitleSramana 2007 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2007
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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