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श्रमण, वर्ष ५८, अंक ४/अक्टूबर-दिसम्बर २००७
सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इनमें ६ राग और प्रत्येक की ६-६ रगिनियों सहित कुल ४२ चित्र हैं। इस दृष्टि से रागमाला की इस प्रति का महत्त्व बहुत अधिक बढ़ जाता है। रागमाला प्राप्त पोथियों में सर्वप्रथम ज्ञात चित्रित पोथी है। १५वीं-१६वीं शती से रागमाला के चित्र बहुत अधिक संख्या में बनने लगे थे। राजस्थान की परवर्ती क्षेत्रीय शैली में इससे सम्बन्धित चित्र बहुत अधिक संख्या में मिलने लगते हैं। पश्चिम भारतीय शैली के चित्रों में राग-रागिनी के केवल रूप विधान का ही अंकन है। फलत: प्रत्येक में केवल एक आकृति है और पृष्ठभूमि में किसी भी प्रकार का वातावरण नहीं है लेकिन परवर्ती चित्रों में इसकी कल्पना नायिका-भेद के रूप में की गई है जहाँ सम्बन्धित वातावरण का अंकन भी है।
इन चित्रों में स्थान सम्बन्धी नयापन दिखाई देता है। प्रायः जैन पोथियों के चित्र वर्गाकार होते थे लेकिन हाशिए वाले इन चित्रों में, खड़े बल के हाशिये में ऊपर और नीचे दो चित्र हैं और दोनों ही दृश्यों को चारों तरफ से एक पतली पट्टी से घेरा गया है। इस तरह पन्ने ग्रन्थाकार है लेकिन चित्र खड़े बल में है। इस तरह एक ओर कलाकार पटचित्रों में स्थान सम्बन्धी बन्धन से मुक्त मालूम पड़ते हैं, वहीं इस रागमाला के चित्र स्थान सम्बन्धी सीमाओं से जकड़े प्रतीत होते हैं, लेकिन इसके बावजूद राग-रागिनी का चित्रण बहुत सहज ढंग से हुआ है। जो चित्र प्राप्त हुए हैं वह बहुत ही क्रमबद्ध रूप में हैं। प्रत्येक चित्र के ऊपर एक पतली पट्टी में सम्बन्धित राग-रागिनी का नाम लिखा है और प्रत्येक पाँच दृश्य के बाद छठे दृश्य में एक वृक्ष का अंकन है। श्री एस०एम० नवाब के अनुसार यह वृक्ष प्रत्येक राग सिरीज की समाप्ति का द्योतक है। इसमें सबसे अन्तिम चित्र एक पूर्ण घट का है जो रागमाला के चित्रों की समाप्ति का सूचक है।
हर पाँचवे खण्ड में मिलने वाला अलंकारिक वृक्ष का आकार पान के पत्ते जैसा है। इस तरह का अंकन इस काल के दूसरे चित्रों में नहीं है। पत्तियों के झुप्पे तने के निचले सिरे के पास से ही शुरू हो जाते हैं। पत्तियाँ सर्पाकार शाखाओं से लगी हुई हैं, झुप्पों को चारों तरफ से दोहरी रेखाओं से घेर दिया गया है। जिन पर बारीकबारीक धारियाँ बनी हुई हैं। वृक्षों का ऐसा ही आकार 'देवशानो पाड़ो कल्पसूत्र' व 'कालकाचार्य कथा' के हाशिए पर बने एक दृश्य में मिलता है। जिसके फलस्वरूप इन दोनों प्रतियों का काल एक ही माना जा सकता है। उक्त 'कल्पसूत्र', व 'कालकाचार्यकथा' की प्रति प्राय: १५७५ ई० की मानी गई है। इसी आधार पर इन रागमाला चित्रों को भी हम लगभग इसी काल में रख सकते हैं। शैली को देखने के बाद भी इसे इसी काल से सम्बन्धित मानना उचित है। एक-दूसरे प्रकार के वृक्ष में पत्तियों के स्थान पर घुमावदार जाल है जो कि समकालीन मुस्लिम टाइल्स से ग्रहण किया गया लगता है।