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श्रमण, वर्ष ५८, अंक ४/अक्टूबर-दिसम्बर २००७
के निरोध होने पर अर्थात् चित्त के विषयों से हटने पर चित्त की अनुगामी बनी हुई इन्द्रियों का अपने-आप विषयों से विरत होना प्रत्याहार है, वहीं जैन योग के अनुसार विषयों में इन्द्रियों की आवश्यक प्रवृत्ति और निवृत्ति में कषायों का उत्पन्न न होना ही प्रत्याहार है। इसके साथ ही दोनों योग पद्धतियों में योग-साधना के क्षेत्र में प्रत्याहार को इन्द्रिय विजय का महान साधन माना गया है। चित्त की बाह्य क्रियाओं का निरोध और इन्द्रियों के दासत्व से इसे स्वतन्त्र करना ही प्रत्याहार का उद्देश्य है। सन्दर्भ : १. योगसूत्र, पतंजलि- २/५८
श्रीमद्भगवद्गीता, २/५८
कठोपनिषद्, १/३/३-६
'तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः। इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।' श्रीमद्भगवद्गीता, २/६८ 'प्रत्याहारमिति चैतन्यतरङ्गाणां प्रत्याहरणं यथा नानाविकारग्रसनोत्पन्नविकारस्यापि निवृत्ति:निर्भातीत प्रत्याहारलक्षणम्'। सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति, २/३६ 'यतो यतो मनश्चरति चाञ्चल्यावशतः सदा। ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशंनयेता' घेरण्ड-संहिता, ४/२ 'प्राणायामद्विषट्केन प्रत्याहारः प्रकीर्तितः।' विवेकमार्तण्ड, श्लोक संख्या-६/ १०४/१०५ यं यं जानाति योगीन्द्रस्तं तस्मात्मेति भावयेत्। यैरेन्द्रियेयैविधानस्तदिन्द्रियजयो भवेत्।।' शिव-संहिता, ३/६८ 'चरतां चक्षुरादीनां विषयेषु यथाक्रमम्।
यत्प्रत्याहारणं तेषां प्रत्याहार: स: उच्यते।।' गोरक्ष-संहिता, श्लोक संख्या-१२५ १०. औपपातिकसूत्र, तपोधिकार, ३० ११. भावनायोग : एक विश्लेषण, उद्धृत आनन्दऋषि प्रवचन, पृ० १४६ एवं १४९ १२. उत्तराध्ययनसूत्र, २९/६३