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हठयोग एवं जैनयोग में प्रत्याहार का स्वरूप : एक तुलनात्मक अध्ययन :
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विषयों का सम्बद्ध इन्द्रियों द्वारा अनुभव कर यथाक्रम इन्द्रियों को अपने-अपने विषयों से अलग कर देना प्रत्याहार है।
भारत में प्रचलित योग-पद्धतियों में जैन योग को अत्यन्त ही आदरणीय स्थान प्राप्त है। जैन योग में भी अन्यान्य योग-पद्धतियों की भाँति प्रत्याहार का विवेचन योग-साधना के एक महत्त्वपूर्ण सोपान के रूप में किया गया है। जैन योग में प्रत्याहार के स्वरूप को 'प्रतिसंलीनता तप' के रूप में व्यक्त किया गया है। 'प्रतिसंलीनता तप' निम्नलिखित चार प्रकारों में विभक्त हुआ है
(i) इन्द्रिय प्रतिसंलीनता (ii) कषाय प्रतिसंलीनता (iii) योग प्रतिसंलीनता और (iv) विविक्तशयनासंसेवनता
श्रौत्रादि इन्द्रियों के विषय-प्रचार को रोकना और प्राप्त शब्दादि विषयों में रागद्वेषरहित होना 'इन्द्रिय प्रतिसंलीनता' है। क्रोध, मान, माया एवं लोभ के उदय को रोकना और उदय होने पर उसे सफल न होने देना, 'कषाय प्रतिसंलीनता' है। अकुशल मन का और अकुशल वाक् का निरोध, कुशल मन और कुशल वाक् की प्रवृत्ति और शारीरिक व्यर्थचेष्टा से या कुप्रवृत्ति से की गई निवृत्ति योग प्रतिसंलीनता' में निहित है। यही समिति एवं गुप्ति है। एकान्त में या निर्बाध स्थान में रहना 'विविक्तशयनासन' है। प्रतिसंलीनता के प्रथम एवं द्वितीय प्रकार के साथ प्रत्याहार का साम्य स्पष्ट है। जैनदृष्टि के अनुसार द्वितीय के अभाव में प्रथम प्रकार की प्रतिसंलीनता का कोई मूल्य नहीं है। दूसरे शब्दों में राग-द्वेष आदि विकारों की शान्ति के प्रकाश में ही इन्द्रियों की विषय-विमुखता को साधना के रूप में देखा जा सकता है। स्पष्ट कहा गया है कि
आँखों के सामने आते हुए रूप और कानों में पड़ते हुए शब्द आदि विषयों का परिहार शक्य नहीं है, परंतु ऐसे प्रसंगों में साधक राग और द्वेष से दूर रहें। अनावश्यक रूप से होने वाले शक्ति के व्यय को टालने के लिए जहाँ इन्द्रिय-निग्रह आवश्यक है, वहाँ भी उस इन्द्रिय-निग्रह की निष्पति अगर राग-द्वेष की शान्ति में होती है तो ही वह इन्द्रिय-निग्रह उचित है। इस प्रकार जैन योग प्रतिपादित प्रत्याहार के स्वरूप का सूक्ष्म अध्ययन करने पर स्पष्टत: प्रतिफलित होता है कि जैन योग में इन्द्रियों के तथाकथित दमन पर नहीं, अपितु उनके स्वाभाविक रूप से आत्माभिमुख या अन्तर्मुख होने की प्रवृत्ति पर जोर दिया गया है।
इस प्रकार हठयोग और जैन योग में विवेचित प्रत्याहार के स्वरूप का समीक्षात्मक अध्ययन करने पर यह स्पष्ट होता है कि जहाँ हठयोग के अनुसार चित्त