________________
जैन दर्शन में प्रत्यभिज्ञान प्रमाण :
४१
है जो एकत्व आदि का संकलन होता है। इन्द्रिय सन्निकर्ष से उत्पन्न होने के कारण इसको प्रत्यक्ष प्रमाण माना है। लेकिन यह केवल इन्द्रिय से ही नहीं, बल्कि संस्कार सहकृत इन्द्रिय सामर्थ्य से उत्पन्न होता है। अत: जैनों ने इन सभी विभिन्न विषयक संकलन ज्ञानों को एक प्रत्यभिज्ञान रूप से प्रमाण माना है।९
निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि प्रत्यभिज्ञान स्मृति एवं प्रत्यक्ष का संकलन ज्ञान होता है, अत: वह दोनों से भिन्न है। प्रायः हम जिन पदार्थों का प्रत्यक्ष करते हैं वह प्रत्यभिज्ञान ही होता है। व्यावहारिक जीवन में प्रत्यभिज्ञान और प्रत्यक्ष में अन्तर प्रतीत नहीं हो पाता है। किन्तु डा० धर्मचन्द्र जैन ने प्रत्यक्ष और प्रत्यभिज्ञान दोनों में अन्तर करते हुये कहा है कि प्रत्यभिज्ञान में स्मृति निहित रहती है जबकि प्रत्यक्ष में स्मृति का अंश नहीं होता है। अत: इस प्रकार प्रत्यभिज्ञान को जैन दर्शन में स्वतंत्र प्रमाण के रूप में स्थापित किया गया है। सन्दर्भ :
प्रमाणमीमांसा, १.१.२ २. विशदः प्रत्यक्षम्। वही, १.१.१३
अविशदः परोक्षम् । वही, १.२.१ स्मृतिप्रत्यभिज्ञानोहानुमानागमस्तद्विवधयः। वही, १.२.२ अनुभवस्मृतिहेतुक संकलनात्मकं ज्ञानं प्रत्यभिज्ञानम्। न्यायदीपिका, पृ० ५६ द्विविधंहि प्रत्यभिज्ञान-तदेवेदमित्येकत्वनिबिन्धनम् तादृशमेवेदमिति सादृश्यनिबन्धनं च। प्रमाण परीक्षा, विद्यानन्द, पृ० ४२ ।। दर्शनस्मरणकारणकं संकलनं प्रत्यभिज्ञानम्। तदेवेदं तत्सदृशं तद्विलक्षणं तत्प्रतियोगीत्यादि। परीक्षामुख, ३.५ प्रतिभासभिदैकार्थे दूरासान्नाक्षबुद्धिवत् - लघीयस्त्रय, ४५
सिद्धिविनिश्चय वृत्ति - पृ० १७९ १०. अनुभवस्मृतिहेतुकं तिर्यगूलतासामान्यादिगोचरं, संकलनात्मकं ज्ञानं प्रत्यभिज्ञानम्।
प्रमाणनयतत्त्वालोक, ३.५ ११. जैन, धर्मचन्द्र, बौद्ध प्रमाणमीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा, पृ० ३०८, १२. दर्शनस्मरणसम्भवं तदेवेदं तत्सदृशं तद्विलक्षणं तत्प्रतियोगीत्यादिसङ्कलनं
प्रत्यभिज्ञानम्। प्रमाणमीमांसा, १.२.४