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________________ जैन दर्शन में प्रत्यभिज्ञान प्रमाण : ३९ वर्तमान का प्रत्यक्ष करके उसी के अतीत का स्मरण होने पर यह वही हैं इस प्रकार का जो संकलनात्मक ज्ञान होता है, वह एकत्व प्रत्यभिज्ञान है। यहाँ 'यह' का प्रत्यक्ष होता है और 'वह' का स्मरण किया जाता है। इसी प्रकार 'गाय के समान गवय होता है। इस वाक्य को सुनकर कोई व्यक्ति वन में जाता है और सामने गाय के समान पशु का अवलोकन करके उस वाक्य का स्मरण करता है और फिर निश्चय करता है कि यह पशु गवय है। इस प्रकार के सादृश्य विषयक संकलन को सादृश्य प्रत्यभिज्ञान कहते हैं। 'गाय से विलक्षण भैंस होती है।' इस प्रकार के वाक्य को सुनकर जिस पशु वाड़ा में गाय और भैंस दोनों वर्तमान हैं वहाँ जाने वाला व्यक्ति गाय से विलक्षण पशु को देखकर उस वाक्य को स्मरण करता है और निश्चय करता है 'यह भैंस है' इस विलक्षण विषयक संकलन को वैसादृश्य प्रत्यभिज्ञान कहते हैं। इसी प्रकार अपने समीपवर्ती गृह के प्रत्यक्ष के उपरान्त दूरवर्ती पर्वत को देखने पर पूर्व का स्मरण करके जो ‘यह इससे दूर है' इस प्रकार का आपेक्षिक ज्ञान होता है वह प्रतियोगिक प्रत्यभिज्ञान कहलाता है। अकलंक ने प्रत्यभिज्ञान को परिभाषित करते हुए कहा है कि जब पहले से अनुभव किये हुए अतीत के अर्थ का पुनः प्रत्यक्ष होता है तो व्यक्ति उसका प्रत्यभिज्ञान करता है। दूर-निकट आदि का ज्ञान प्रत्यभिज्ञान के द्वारा ही होता है। जैन दर्शन ने उपमान प्रमाण का अन्तर्भाव प्रत्यभिज्ञान प्रमाण में किया है। वादिदेवसूरि ने अनुभव एवं स्मृति से उत्पन्न तथा तिर्यक् सामान्य व उर्ध्वता सामान्य को विषय करने वाले संकलनात्मक ज्ञान को प्रत्यभिज्ञान कहा है। इसमें प्रत्यभिज्ञान के कारण, उसके विषय एवं स्वभाव का निर्देश हो गया है। 'प्रमाणमीमांसा' में हेमचन्द्र ने प्रत्यभिज्ञान के लक्षण का निरूपण करते हुए कहा है- प्रत्यक्ष और स्मरण से उत्पन्न होने वाला 'यह वही है', 'यह उसके सादृश्य है', 'यह उससे विलक्षण है' 'यह उससे थोड़ा-बहुत निकट या दूर है' इत्यादि जोड़ रूप ज्ञान प्रत्यभिज्ञान है। जैन दर्शन के अतिरिक्त प्रत्यभिज्ञान शब्द का प्रयोग काश्मीर शैव-दर्शन में आत्म-प्रत्यभिज्ञान के रूप में किया गया है। वहाँ ज्ञात आत्मा को भूलकर पुनः पहचान लेना प्रत्यभिज्ञान है। जैन दर्शन में प्रत्यभिज्ञान के विविध रूपों यथा एकत्व प्रत्यभिज्ञान, सादृश्य प्रत्यभिज्ञान, वैसादृश्य प्रत्यभिज्ञान, प्रातियोगिक प्रत्यभिज्ञान इत्यादि भेदों का वर्णन किया गया है, जबकि काश्मीर शैवदर्शन में केवल एकत्व प्रत्यभिज्ञान को अंगीकार किया गया है, क्योंकि सादृश्य प्रत्यभिज्ञान से एकरूपता का ज्ञान नहीं होता है। शैव दर्शन में प्रत्यभिज्ञान को त्रिविध प्रमाणों (प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द) का मूल माना गया है। किन्तु जैन दर्शन में प्रत्यभिज्ञान को स्मृति तथा प्रत्यक्ष का संकलनात्मक ज्ञान माना गया है। शैव दर्शन में प्रत्यभिज्ञान आत्माभिमुख है, किन्तु जैन दर्शन में अर्थाभिमुख स्वीकार किया गया है।१४
SR No.525062
Book TitleSramana 2007 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2007
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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