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३६ : श्रमण, वर्ष ५८, अंक ४/अक्टूबर-दिसम्बर २००७
जब ध्येय (परमात्मा) से अभिन्न अनुभव करता है उस अवस्था का प्रतिपादन जैन, सिद्धान्त में भाव निक्षेप द्वारा हुआ है। संत कबीर व अन्य संतों ने ध्यान का वर्णन इसी शैली में प्रस्तुत किया है। एक स्थान पर कबीर लिखते हैं- अज्ञानावस्था में जिसे मैं अपने से भिन्न कहता था, ज्ञानालोक में अर्थात् ध्यान द्वारा वह परमतत्त्व - परमात्मा अभिन्न हो गया । यथा
जा कारण मै जाइ था, सोई पाई ठौर ।
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सोई फिरि आपण भया, जासू कहता और ।। मृत्तिका समाह रही भाजन रे रूप मांहि । मृत्तिका कौ नाम मिटि भाजन ही गहयौ है ।। २३
अन्य संतों ने भी स्व-कथन का प्रतिपादन निक्षेप-पद्धति से किया है किन्तु विस्तार भय से हम सबका उल्लेख नहीं रहे हैं। उक्त विवेचना के आधार पर यह सिद्ध हो गया है कि संत साहित्य में द्रव्य / पदार्थ, प्राकृतिक तत्त्वों व सिद्धान्तों का विवेचन निक्षेप योजना द्वारा हुआ है। आचार्य परशुराम चतुर्वेदी की पुस्तक 'कबीर साहित्य की परख के अन्तर्गत कबीर साहित्य और कबीर पंथी साहित्य की विवेचना में 'निक्षेप सत्य-ज्ञान-दर्शन' ( पृ०-७३) जैसे रचना का उल्लेख हुआ है। जिसके आधार पर हम नि:संकोच कह सकते हैं कि कबीर की सिद्धान्त विवेचना निक्षेप युक्त है। अन्य संतों ने भी कबीर-पद्धति का ही अनुसरण किया है।
जिस प्रकार जैन दर्शन में द्रव्य या प्रकृति तत्त्वों की मीमांसा निक्षेप, प्रमाण वनय के माध्यम से हुई है उसी प्रकार संतों के काव्य में भी न्यायपूर्ण मीमांसा हुई है। अन्तर इतना है कि जैन न्याय प्रणाली व्यवस्थित है जब कि संत-काव्य में कोई व्यवस्थित विवेचना नहीं है। संत किसी एक दार्शनिक परम्परा से बंध कर नहीं चले उनकी दृष्टि महत्त्वपूर्ण थी। उन्हें जहाँ अच्छा विचार ग्राह्य लगा उन्होंने उसे अपनाने में संकोच नहीं किया। हमने प्रस्तुत लेख में मध्ययुगीन बहुश्रुत कवियों के काव्य को जैन न्यायशास्त्र की जटिल व गंभीर शैली निक्षेप-पद्धति के आलोक में देखा-परखा है। मध्ययुगीन निर्गुण संत कवि पण्डित व शास्त्रज्ञ नहीं थे, यदि वे तार्किक व विद्वान् होते तो इस शैली के परिप्रेक्ष्य में अपने कथन को गहनता से प्रस्तुत करते । किन्तु संभावना यह भी है कि संतों की सहजता व सरलता समाप्त हो जाती। वे ज्ञानी तो हो जाते, परन्तु कवि न रह पाते और काव्य के कंधों पर बिना चढ़े न्यायशास्त्र की निक्षेप शैली जनसाधारण तक नहीं पहुँच पाती।