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मध्ययुगीन संत-काव्य में जैन न्याय की निक्षेप-पद्धति :
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साहब एक स्थान पर अपने इष्ट को सारंगपाणि (घनुषधारी) के रूप में हृदय मन्दिर में प्रतिष्ठित करके उसकी उपासना करते हुए कहते हैं
हौ जांचौ सो केवल राम, आन देव सूं नाहि काम । जाके सूरज कौटि कटै परकास, कोटि महादेव गिरिकविलास।।
दास कबीर भजि सारंगपान, देहु अभै पद मांगौ दान ।।"
मध्ययुगीन निर्गुणधारा के सभी संत कवि निराकार ब्रह्म के उपासक होने के पश्चात् भी साकार उपासना के श्रद्धालु भी रहे हैं। डॉ.प्रताप सिंह चौहान का यह कथन नितान्त सार्थक है कि 'संत जितनी निराकर पर श्रद्धा रखते थे उतनी साकार पर भी श्रद्धा रखते थे। संतों की बाह्य साधना नाम-रूपात्मक है और उनकी अन्तस्साधना ध्यानपरक होने के कारण निराकारवादी और निर्विकल्प है। संत मत के एक महात्मा मलूकदास द्वारा रचित राम-सीता के मूर्ति-विग्रह हमने उनके वंशजो के पास देखें है। संतकाव्य के मर्मज्ञ विद्वान् डॉ. राममूर्ति त्रिपाठी के अनुसार भी मध्ययुगीन संत निर्गुण व सगुण उभयात्मक विचारों के पक्षधर थे। उक्त साक्ष्य के आधार पर हम नि:संकोच कह सकते हैं कि संत तदाकार और अतदाकार दोनों स्थापना निक्षेप द्वारा ब्रह्म की उपासना के पक्षधर रहे हैं। द्रव्य निक्षेप
___परमात्मा से पूर्व की पर्याय आत्मा है। प्रत्येक आत्मा में परमात्मा बनने की योग्यता है लेकिन जब तक आत्मा माया, अविद्या व कर्म के पाश में आबद्ध है तब तक वह जीवात्मा है। जिस दिन वह इन पाशों से मुक्त हो जाएगी, वह परमात्मा स्वरूप हो जाएगी। संतों की यह व्याख्या-आत्मा ही परमात्मा है, द्रव्य निक्षेप पर आधारित है। परमात्मा जीवात्मा की आगामी योग्यता है। संत दादू की वाणी में -
करमों के बस जीव है, करम रहित से ब्रह्म । जहं आतम तहं परमात्मा, दादू भागा भर्म ।। संत रज्जब भी कहते हैं : रज्जब जीव ब्रह्म अन्तर इतना, जिता-जिता अज्ञान।
है नाहीं निर्णय भया, परदे का परवान ।। भाव निक्षेप
परमतत्त्व के साक्षात्कार हेतु संतों ने ध्यान-साधना, जप-साधना और नामसाधना की प्रेरणा सर्वत्र देकर जन-जन को लाभान्वित किया है। ध्याता ध्यान द्वारा