________________
श्रमण, वर्ष ५८, अंक ४ / अक्टूबर-दिसम्बर २००७
भाव निक्षेप है - जैसे- लकड़ी को लकड़ी कहना, जलकर जब वह कोयला बन जाए तब कोयला कहना और कोयला भी जब राख बन जाए तब राख कहना ।
३४
वस्तुतः द्रव्य का स्वरूप नाना प्रकार का है उसको सम्यक् रूप से कथित करने के लिए इस पद्धति को अपनाया जाता है।
संत-काव्य में निक्षेप
संतों की अनुभूतियों की अभिव्यक्ति तथा अव्यक्त चेतना अर्थात् परमतत्त्व का प्रतिपादन निक्षेप पद्धति के आधार पर हुआ है। संतों का उपदेश किसी एक धर्मग्रन्थ पर आधारित न होकर निज अन्वय पर आधारित होता है। उनकी दृष्टि दार्शनिक से भी अधिक सत्यान्वेषी होती है। आत्मा-परमात्मा विषयक जिज्ञासा उन्हें अनुभूति के गहन समुद्र में अवगाहन करने के लिए विवश करती है। उनके जीवन में सत्य का प्रकाश होता है और उस अव्यक्त तत्त्व का साक्षात्कार उन्हें होता है। कबीर ने स्पष्ट कहा है कि 'मुझे चिन्तन करते-करते ही उस निर्मल जल (परमतत्त्व) की प्राप्ति हो गई जिसका वर्णन मैं अपने शब्दों में करने जा रहा हूँ।
अब समस्या यह उत्पन्न होती है कि जिस अव्यक्त तत्त्व का साक्षात्कार उन्हें अनुभूति के आलोक में होता है, उसको व्यक्त किस प्रकार करें? चूंकि संसार में सभी व्यवहार तथा विचारों का आदान-प्रदान भाषा द्वारा ही होता है। जैसा कि ऊपर हम लिख चुके हैं कि भाषा शब्दों द्वारा निर्मित होती है। एक ही शब्द प्रयोजन तथा प्रसंगवश अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है। प्रत्येक शब्द के कम से कम चार अर्थ होते हैं। अत: सिद्ध हुआ जो अर्थ कोश में एक ही अर्थ का द्योतक है निक्षेप करने से उस शब्द के भी चार अर्थ होते हैं। स्वानुभूति को जन-जन के समक्ष व्यक्त करने के लिए मध्ययुगीन अनुभवी संतों ने निक्षेप का अवलम्बन लेकर उस परमतत्त्व को चार प्रकार से प्रतिपादित किया है।
नाम निक्षेप
लोक-व्यवहार में मध्यकालीन संतों ने परमतत्त्व का सम्बोधन नाम निक्षेप के आधार पर 'राम' शब्द से किया है। अन्यत्र भी सन्तों ने उस अव्यक्त तत्त्व को अलख, निरजंन, निर्भय, निराकार, शून्य तथा स्थूल से भिन्न अथवा दृश्य और अदृश्य से विलक्षण के रूप माना है' तथा ब्रह्म परमहंस, विष्णु, महेश, ब्रह्मा व गोविन्द आदि 'नामों से पुकारा है।
स्थापना निक्षेप
संतों ने स्थापना निक्षेप के द्वारा अपने मन में व हृदय मन्दिर में अपने इष्ट की साकार छवि की अतदाकार स्थापना करके ध्यान करने का निर्देश भी दिया है। कबीर