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श्रमण, वर्ष ५८, अंक ४/अक्टूबर-दिसम्बर २००७
मथुरा के शिलालेख जैन समाज में महिलाओं के सम्मानित स्थान-प्राप्ति पर . प्रकाश डालते हैं। अधिकांश दान और प्रतिमा प्रस्थापना उन्हीं की श्रद्धा भक्ति का फल था। 'माथुरक' लवदास की भार्या तथा फल्गुयश नर्तक की स्त्री शिवयशा ने एक-एक सुन्दर आयागपट्ट बनवाये, जो इस समय लखनऊ संग्रहालय में हैं। देवपाल श्रेष्ठी की कन्या, श्रेष्ठीसेन की धर्मपत्नी क्षुद्रा ने वर्धमान प्रतिमा का दान करके अपने को कृतार्थ किया। एक सुन्दर आयागपट्ट से ज्ञात होता है कि गणिका लवणशोमिला की पुत्री वसु ने स्वामी महावीर की स्मृति में इसे स्थापित किया था। ग्रामीक जयनाग की कुटुम्बिनी तथा ग्रामिक जयदेव की पुत्रवधु ने सं०४० (१०८ ई०) में एक शिलास्तम्भ का दान किया। इसी प्रकार लेखों में वेणी नामक श्रेष्ठी की धर्मपत्नी कुमारमिश्रा, मणिचार जयभट्टि की दुहिता तथा लौहवषिज् फल्गुदेव की धर्मपत्नी मित्रा, आचार्य वलदत्त की शिष्या तपस्विनी कुमारमित्रा, गुहदत्त की पुत्री तथा धनहस्ति की पत्नी श्राविका दत्ता, राज्यवसु की पत्नी तथा देविल की माता विजयश्री दत्ता, जयदास की धर्मपत्नी गढ़ा, सार्थवाहिनी, धर्मशोभा, कौशिकी, विश्वामित्रा, अमोहिनी आदि श्राविकाओं ने जिन-प्रतिमा, सर्वतोभद्रिकाप्रतिमा, शिलास्तम्भ, शिलापट्ट आदि की स्थापना बड़े ही श्रद्धाभाव से किया था। इससे प्राचीन कालीन मथुरा में जैन धर्म की अभ्युन्नति में महिलाओं की महत्ता पर प्रकाश पड़ता है।
प्राचीन मथुरा में जैन धर्म के दो सम्प्रदायों दिगम्बर तथा श्वेताम्बर का भेदभाव नहीं दिखायी पड़ता । मौर्य काल में भारत का पाश्चात्य देशों से सम्पर्क बढ़ने के कारण तत्कालीन भारत के प्रमुख धर्मों में अपने सिद्धान्तों को लिपिबद्ध करने की भावना उद्भूत हुई। जैन आगमों को लिपिबद्ध करने के लिए प्रसिद्ध सरस्वती आन्दोलन का सूत्रपात मथुरा से ही हुआ। बाद में यही सम्पूर्ण भारत में व्यापक हो गया। इस आन्दोलन के फलस्वरूप प्रथम शताब्दी से ही जैन ग्रन्थों को लिपिबद्ध किया जाने लगा। जैन सूत्रों का संस्करण करने के लिए मथुरा में अनेक जैन श्रमणों का संघ उपस्थित हुआ था जिसके अध्यक्ष आर्य स्कन्दिल थे। यह सम्मेलन माथुरी वाचना के नाम से प्रसिद्ध है। देवी सरस्वती की प्राचीनतम प्रतिमा कंकाली से मिली है, जो आजकल लखनऊ संग्रहालय में है। मथुरा में ई० प्रथम शती में देवी सरस्वती को सर्वप्रथम मूर्त रूप प्रदान करना जैनियों की उक्त चेतना का प्रतीक है जिसकी परम्परा अगली शताब्दियों में जारी रही।
मथुरा से प्राप्त मूर्ति-शिल्प से ज्ञात होता है कि गुप्तकाल में जैन मूर्ति-शिल्प में अनेक आयाम जुड़े। यक्ष-यक्षियों तथा शासन देवियों आदि का अंकन गुप्तकाल में शुरु हुआ जो मध्यकाल तक चलता रहा। तीर्थंकरों की भी कलात्मक प्रतिमाएँ मध्यकाल तक पायी जाती हैं।