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________________ 1 जैन धर्म और ब्रज : २७ मथुरा के कंकाली टीले की खुदाई से हमें बहुसंख्यक जैन मूर्तियाँ तथा जैन वास्तु प्राप्त हुए हैं। ऐसा लगता है कि जैन धर्म में मूर्तिपूजा का प्रारम्भ जैन धर्म की जन्म-स्थली बिहार में न होकर भक्ति की जन्मस्थली मथुरा में हुआ। कंकाली की खुदाई में सभी धर्मों की मूर्तियाँ मिली हैं। परन्तु जैन मूर्ति - शिल्प की संख्या बहुत अधिक है। विद्वानों ने इनका काल निर्धारण २री शती ई० पू० से लगभग १२ वीं शती ई० के बीच किया है । ३° श्री यू०पी० शाह के अनुसार यह शिल्प सामग्री लगभग १५० ई० पू० से १०२३ ई० के मध्य की है। " डॉ० अग्रवाल ने इसका काल २री शती ई० पू० से ११ वीं शती तक माना है। उनके अनुसार लगभग १३०० वर्षों तक जैन धर्म के अनुयायी यहाँ पर चित्र-शिल्प की सृष्टि करते रहे। ३२ ३० कंकाली टीले से प्रभूत मात्रा में जैन वास्तु-शिल्प आयागपट्ट, स्तूप उत्खचित अन्य शिलाखण्ड, तीर्थंकर मूर्तियाँ, अष्टमांगलिक चिह्न (चक्र, स्वस्तिक श्रीवत्स, मीन- मिथुन, नन्द्यावर्त, पूर्णघट, माला, भद्रासन आदि देवी प्रतिमाएँ तथा लोक जीवन से सम्बन्धित अन्य चित्रण भी मिले हैं। यहाँ से प्राप्त अधिकांश पुरावास्तु लखनऊ एवं मथुरा के संग्रहालयों में सुरक्षित हैं । कतिपय अभिलेखों में आयागपट्ट का उल्लेख हुआ है, जिसकी स्थापना अर्हत् की पूजा के लिए होती थी । अतएव आयागपट्टों को ३३ पूजा का प्रथम सोपान कहा गया है। प्रारम्भ में इन्हीं आयागपट्टों पर तीर्थंकरों की छोटी प्रतिमाएँ उकेरी जाती थी। बाद में तीर्थंकरों की स्वतंत्र प्रतिमाओं का निर्माण होने लगा। यहाँ से तीर्थंकरों की अधिसंख्य प्रतिमाएँ मिली हैं। जैन मूर्ति-अभिलेख व जैन साहित्य के अध्ययन से यह तथ्य प्रकट होता है कि मथुरा में ऋषभनाथ, सुपार्श्वनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ तथा वर्धमान महावीर की पूजा प्रचलित थी । ३४ जैन देवियों में सरस्वती, अम्बिका, नैगमेषी आदि की मूर्तियाँ मिली हैं। अब यह स्पष्ट है कि तीर्थंकर मूर्तियाँ सर्वप्रथम मथुरा में ही विनिर्मित हुईं। कंकाली टीले से कुषाण काल से लेकर मध्यकाल तक की मूर्तियाँ मिली हैं। स्पष्ट है कि एक हजार से भी अधिक वर्षों तक मथुरा निरन्तर एक जैन कला केन्द्र के रूप में विकसित होता रहा था। इससे मध्यकाल तक ब्रज में जैन धर्म की महत्ता पर प्रकाश पड़ता है। मथुरा से प्राप्त शक- कुषाणकालीन अधिकांश जैन प्रतिमाएँ एवं आयागपट्ट अभिलिखित हैं। ये लेख ब्राह्मी लिपि में हैं तथा इनकी भाषा संस्कृत-प्राकृत मिश्रित है। जिसमें ब्रज में जैन धर्म के इतिहास पर व्यापक प्रकाश पड़ता है। इन लेखों में जैन धर्म के विभिन्न गणों, गच्छों, कुलों, शाखाओं आदि का उल्लेख मिलता है। " साथ ही अनेक मुनियों, श्रावकों तथा उनके भक्त शिष्यों का भी नामोल्लेख हुआ है। ये उल्लेख भद्रबाहु के 'कल्पसूत्र' में ज्यों के त्यों हमें मिल जाते हैं। इससे ज्ञात होता है कि ईसा की प्रथम शताब्दी में मथुरा में जैनों का काफी जोर था । "
SR No.525062
Book TitleSramana 2007 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2007
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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