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२६ : श्रमण, वर्ष ५८, अंक ४/अक्टूबर-दिसम्बर २००७
का सफेद झंडा स्तूप पर लगा दिया और सबेरे जब राजा स्तूप देखने आया तो उस पर सफेद झंडा लहराते देखकर उसे जैन स्तूप मान लिया ।
श्री अगरचन्द्र नाहटा ने जैन स्तूप के सम्बन्ध में बड़े ही महत्त्वपूर्ण साहित्यिक प्रमाण प्रस्तुत किये हैं। संगमसूरिकृत १२ वीं शती की संस्कृत रचना 'तीर्थमाला' और सिद्धसेनसूरिकृत १३वीं शती की अपभ्रंश कृति 'सकलतीर्थ स्तोत्र' में मथुरा की इसलिए वन्दना की गयी है कि वहाँ श्री देवी विनिर्मित स्तूप के साथ ही साथ नेमिनाथ और पार्श्वनाथ के रमणीक महास्तूप भी हैं : २३ -
मथुरापुरि प्रतिष्ठितः सुपार्श्वजिन काल संभवो जयति । अद्यापि सूराम्यर्च्य श्रीदेवी विनिर्मितः स्तूपः ||८|| संगमसूरिकृत 'तीर्थमाला'
सिरि पासनाह सहियं रम्यं, सिरि निन्नियं महाथूनं । कलिकाल विसुतिस्थं महुरा नयरीय (ए) बदाभि ।। २० ।। सिद्धसेनकृत 'सकल तीर्थस्तोत्र'
जैन मान्यताओं के अनुसार मथुरा के स्तूपों की परम्परा मुगल सम्राट अकबर के काल तक पायी जाती है, क्योंकि उस समय के जैन पंडित राजमल्ल ने अपने 'जम्बूस्वामी चरित' में लिखा है कि मथुरा में ५१५ जीर्ण स्तूप थे, जिनका उद्धार टोडरमल सेठ ने अपरिमित व्यय से कराया था। २४
कंकाली स्थित देवनिर्मित स्तूप की प्राचीनता साहित्य से सिद्ध करना मुश्किल है। इस दिशा में पुरातत्त्व ने हमारा कार्य आसान कर दिया है। यहाँ से कुषाण कालीन मूर्ति २५ के पादपीठ पर एक लेख मिला है जिसमें देवनिर्मित स्तूप में अर्हत् की प्रतिमा स्थापित करने का उल्लेख है । यह लेख सं० ७९ अर्थात् कुषाण सम्राट वासुदेव के राज्य काल ई० १५७ का है। २६ यहाँ देवनिर्मित शब्द का उल्लेख अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। विद्वानों के आकलन के अनुसार द्वितीय शताब्दी ई० में ही यह स्तूप इतना प्राचीन माना जाता था कि इसके निर्माण का इतिहास लोग भूल चुके थे। अतः परम्परानुसार लोग इसे देवों द्वारा विनिर्मित मानने लगे थे। इससे इस स्तूप की प्राचीनता अपने आप सिद्ध हो जाती है। कंकाली टीले से प्राप्त आयागपट्ट एवं अन्य शिलाखण्डों पर उत्कीर्ण स्तूपों के अध्ययन के आधार पर डॉ० अग्रवाल ने देवनिर्मित स्तूप के निर्माण की तिथि द्वितीय शताब्दी ई०पू० के आरम्भ में रखा है। २७ अतः कहा जा सकता है कि सिन्धु संस्कृति के पश्चात् मथुरा का देवनिर्मित स्तूप भारत का प्राचीनतम स्तूप था।" इस तथ्य से देशी तथा विदेशी सभी विद्वानों ने अपनी सहमति प्रकट की है।