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आचारांग में भारतीय कला :
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जंगियं वा भंगियं वा-तूलकडं वा। इन वस्त्रों का ओढ़ने एवं पहनने दोनों कार्यों में उपयोग किया जाता था। हढ़ संहनन वाले साधु को एक वस्त्र धारण करने का निर्देश मिलता है। साड़ी निर्माण भी प्रचुर मात्रा में किया जाता था। निर्ग्रन्थिनियों (साध्वियों) के लिए एक साथ चार साड़ी रखने का उल्लेख मिलता है, जिसकी मात्रा दो हाथ से लेकर चार हाथ तक स्वीकृत की गई है। वस्त्र-सिलाई का कार्य भी होता था-'अह पच्छा एगमेगं संसिविज्जा'।।"
पशुओं को मारकर भी वस्त्र बनाये जाते थे। साधुओं के लिए पशुहिंसा से निर्मित वस्त्र का ग्रहण निषिद्ध माना गया है। इसी उद्देशक के पांचवें सूत्र में २१ प्रकार के मूल्यवान वस्त्रों का उल्लेख है, यथा-आईणगाणि (चूहे आदि के चमड़े के वस्त्र), सहिणाणि (चिकने बारीक वस्त्र),सहिणकल्लाणाणि (बारीक चकमदार वस्त्र), मनोहर वस्त्र, बकरे के नरम खाल के बने वस्त्र, इन्द्रनील वर्ण के कपास का बना, सामान्य कपास का बारिक वस्त्र, दुकूल (गौडदेशीय कपास से बना), मलय (मलयज सूत से बना) वस्त्र, वल्कल वस्त्र, अंशुक, चीनांशुक या देशराग वस्त्र, अमल वस्त्र, गजलवस्त्र, फालिक वस्त्र, कोयव वस्त्र, रत्नकम्बल अथवा मलमल आदि।१२ चमड़े के बने वस्त्रों के भी अनेक प्रकार मिलते हैं, यथा- उद्रवस्त्र (उद्र नामक मत्स्य के चमड़े से बना वस्त्र), पेस (सिन्धुदेश में पतली चमड़ी वाले पशुओं से बने वस्त्र), पेशल-वस्त्र, कृष्णमृगों की चमड़ी से बना वस्त्र, व्याघ्र-चर्म के बने वस्त्र आदि।
वस्त्रों में सुगंधित द्रव्य भी लगाए जाते थे। वस्त्रों की रंगाई, सफाई एवं धुपादि से सुगन्धित करने की कला भी उच्चकोटी की थी।१६
४. पात्र ( बर्तन ) निर्माण कला- 'वात्स्यायन-कामसूत्र' में निर्दिष्ट ६४ कलाओं की सूची में ३५वें स्थान पर तक्षक कर्माणि एवं शुक्रनीतिसार में उद्दिष्ट ६४ कलाओं की सूची में २६वें स्थान पर ‘मृत्तिकाकाष्ठपाषाण धातुभांडादिसक्रिया (मिट्टी, लकड़ी, पत्थर और धातुओं से बर्तन निर्माण कला) का उल्लेख प्राप्त होता है। 'आचारांगसूत्र' में बर्तन-निर्माण कला का विकसित रूप उपलब्ध होता है।
उस समय (आचारांग काल में) मिट्टी, तुम्बी, लकड़ी, लोहा, ताम्बा आदि के अतिरिक्त अनेक बहुमूल्य धातुओं से भी बर्तन बनाये जाते थे। लोहा, ताम्बा, रांगा, शीशा, चाँदी, सोना, पीतल, फौलाद, मणि कांच या कांस्य, शंख, सींग, दाँत, वस्त्र, पाषाण, चमड़ा आदि से विभिन्न प्रकार के बर्तनों का निर्माण होता था- अयपायाणि तउपायाणि.....चम्मपायाणि वा। ९७