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श्रमण, वर्ष ५८, अंक ४/अक्टूबर-दिसम्बर २००७
परियावसह (मठ)। लोग अपने निवास के लिए भवन का स्वयं निर्माण करवाते थे तथा जीर्ण-शीर्ण होने पर उसका पुनरुद्वार भी करवाते थे-आवसहं वा समुस्सिणोमि।' ' (मकान बनवा देता हूँ या ठीक करवा देता हूँ)। एक स्थल पर मकान के छोटे द्वार को बड़ा करने, बड़े द्वार को छोटा करने, सम वसति बनाना, हवादार गृह का निर्माण करना, उपाश्रय के बाहर भीतर घास आदि को ठीक कर सजाने आदि का भी उल्लेख मिलता है।
खुड्डियदुवारियाओ महल्लियदुवारियाओ कुज्जा, महल्लियदुवारियाओ खड्डियदुवारियाओ कुज्जा.........संथारगं संथारेज्जा.....।'
२. संगीत कला- भारतीय कला-मर्मज्ञों ने संगीत को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है। संगीत वह रसायन अमृत संजीवन या पारस पत्थर है जिसको प्राप्त कर हर व्यक्ति धन्य हो जाता है। अमरत्व की मूर्च्छनामयी रमणीय अभिव्यक्ति का नाम हैसंगीत। इसीलिए कला-संगायकों ने समस्त कलाओं में इसे प्रथम स्थान पर परिगणित किया है। संगीत में शाश्वत और सार्वभौम शक्ति निहित होती है। इसीलिए बालक, वृद्ध आदि सामान्य जन के साथ महासाधक योगी जन भी संगीत-प्रिय होते हैं। 'आचारांगसूत्र' में अनेक स्थलों पर इसका उल्लेख मिलता है
'आघाय-णट्ट-गीताई
३. वस्त्र निर्माण कला- भारतीय कलाओं में वस्त्र निर्माण कला का महत्त्वपूर्ण स्थान है। वस्त्रों की रंगाई, धुलाई की कला उत्कर्षावस्था में थी। 'ललितविस्तर' में वस्त्ररागः (कपड़ा रंगना), वात्स्यायन ने दशवशांगराग: एवं वस्त्रगोपनानि, शुक्रनीतिसार में अनेकतन्तु संयोगै: पटबन्ध: (सूत से कपड़ा बुनना) एवं वस्त्रसंमार्जनम् (कपड़ा साफ करना) आदि वस्त्र से सम्बन्धित कलाओं का निर्देश किया गया है। 'आचारांगसूत्र' में रेशमी वस्त्र का उल्लेख मिलता है
णो चेविमेण वत्थेण ।' जं ण रिक्कासि वत्थगं भगवं ।
वोसज्जवत्थमणगारे । द्वितीय श्रुतस्कन्ध के पांचवे अध्ययन (प्रथम उद्देशक) में तत्कालीन वस्त्रकला पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है। ऊनी (जंगीयं), रेशमी (भंगियं), सन का बना (साणियं), पत्तो का बना (पोत्तगं), रुई का बना तथा पशुओं के रोवें एवं चमड़े से बने वस्त्रों का उल्लेख मिलता है।
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