SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 22
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचारांग में भारतीय कला : १७ कला है। कला वस्तु के पीछे सत्य, शिव और सौन्दर्य का समन्वयात्मक भाव" निदर्शन है। वह आस्तिकता की जननी है, श्रद्धा की प्राणमयी प्रतिष्ठा की सिन्दूर लिमा है। विश्वास और श्रद्धा के सहारे ही वह नित्य-नवीन तथा चिर-सुन्दर है। कला का कार्य सौन्दर्य सृजन है। सौन्दर्य की सहज एवं समादृत अभिव्यक्ति कला के माध्यम से ही संभव है । अहं विस्मरण एवं आत्मरूप परमात्मस्मरण ही कला का धरोहर है। अहं की विस्मारिका एवं शिव-शक्ति की प्रसविता शक्ति ही कला है जिसमें सीमा का असीम में, मर्त्य का अमरत्व में तथा धरती का स्वर्ग में परिवर्द्धन हो जाता है। जहाँ जीवन का परम सत्य शिव एवं शर्वाणी के ताण्डव - लास्य की शाश्वत सत्ता के रूप में उद्भासित होता है। कला बन्धन नहीं परम मुक्ति के ऐश्वर्य का शाश्वत गीत है। वह निष्कल, निष्क्रिय, शान्त, निरवद्य, निरंजन एवं अमृत के परम हेतु तथा ऐश्वर्य विभूति सम्पन्न आत्मा की चेतनता की आधारशिला है। यही कारण है कि भारतीय मनीषि, प्रचेता, आगमधर, आप्तपुरुष एवं सर्वदर्शन समर्थ तत्त्वज्ञों की वाणी भी कलामयी होती है। भारतीय कला तो वैदिककाल से ही विकसित रूप में मिलती है। वात्स्यायन विरिचत 'कामसूत्र' में ६४, 'शुनीतिसार' में ६४, 'प्रबन्धकोश' में ७२, 'ललितविस्तर' में ८४, जैन वाङ्मय 'समवायांग' में ७२ कलाओं का निर्देश प्राप्त होता है। 'आचारांगसूत्र' जैन आगम - साहित्य में प्रथम स्थान पर प्रतिष्ठित है। यह चौर्ण-शैली में संग्रथित चरणकरणानुयोग का महनीय ग्रन्थ है। आत्मा की महार्घ्यता का बोध ही इस ग्रन्थ का लक्ष्य है। उस क्रम में अनेक भारतीय कलाओं का निर्देश प्राप्त होता है, जिसमें स्थापत्य कला, भोजन निर्माण कला, युद्ध कला आदि प्रमुख । यथाप्राप्त विषय का निरूपण अधोविन्यस्त है। १. स्थापत्य कला - भवन-निर्माण, नगर, दुर्ग, प्रासाद आदि से सम्बद्ध कौशल को स्थापत्य कला कहते हैं। यह वात्स्यायन के 'कामसूत्र' में वास्तुविद्या के रूप में निर्विष्ट है। 'आचारांगसूत्र' में विकसित स्थापत्य कला का निदर्शन मिलता है। यहाँ स्थापत्य कला के आठ अंगों - वास्तुपुरुष (रेखा चित्र), पुरनिवेश (द्वारकर्म, रथ्याविभाग, प्रतोली - विनिवेश), प्रासाद ध्वजोच्छति, राज वेश्मभवन (सभा, अश्वशाला, गजशाला), जनभवन, यज्ञवेदी, राजशिविर विनिवेश में से अनेक की उपलब्धि होती है। एक स्थल पर चार प्रकार के प्रासादों (गृहों) का उल्लेख मिलता है- 'आगंतागारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावइकुलेसु वा परियावसहेसु वा अर्थात् आगंतागार (धर्मशाला), आरामागार (मुसाफिर खाना या उद्यान गृह), गाथापति गृह (गृहस्थ का घर) तथा
SR No.525062
Book TitleSramana 2007 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2007
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy