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________________ श्रमण, वर्ष ५८, अंक ४ अक्टूबर-दिसम्बर २००७ आचारांग में भारतीय कला डॉ० हरिशंकर पाण्डेय * सौन्दर्य-बोध को मानव द्वारा गति एवं क्रिया में मूर्त रूप प्रदान करने के सार्थक एवं सफल प्रयास का नाम है- कला । वह सत्य - सागर से समुद्भूत ऐसा महत्त्वपूर्ण रत्न है जो महार्घ्य गुणों की खनि, आनन्द का विलास और अविनश्वरता का परमलास्य रूप होता है। भारतीय - वाङ्मय में यह शब्द १६वां भाग, छोटा भाग, चन्द्रमा का १६ वाँ अंश, समय का एक भाग मूल ब्याज, कपट, नौका, सुन्दर, कोमल आदि अनेक अर्थों प्रयुक्त मिलता है। प्रस्तुत संदर्भ में सुन्दर, कोमल, आनन्द आदि का वाचक 'कला' शब्द विचार्य है। अनेक मनीषियों ने सुन्दर एवं मधुर सुख को लाने वाले को कला कहा है - १. 'कं सुखं लातीति कला' अर्थात् जो सुख को प्रदान करे वह कला है। ' २. भ्वादिगणीय 'कड मदे' (कड् = मदमस्त करना) धातु से भी कला शब्द की निष्पत्ति होती है जिसका अर्थ है मदमस्त करना, प्रसन्न कर देना । अर्थात् जिससे प्रसन्नता की प्राप्ति हो वह कला है। ३. चुरादिगणीय 'कल आस्वादने' धातु से कला शब्द निष्पन्न होता है, जिसका अर्थ है 'कलयति आस्वादयति इति कला' अर्थात् 'जो आस्वाद का विषय हो वह कला है। जिससे आनन्दरस की उपलब्धि किंवा चर्वणा (आस्वादन) हो उसे कला कहते हैं। ४. चुरादिगणीय धारणार्थक 'कल्' धातु से भी कला शब्द की निष्पत्ति हो सकती है जिसका अर्थ है- सुख को धारण करे, मन या चित्त को धारण या स्थिर करे, वह कला है। 'कला' की कमनीयता में मानसिक रमणीयता स्फूर्त होती है अर्थात् जहाँ मन स्थिर हो जाता है, वासनाएँ थम जाती हैं उसे कला कहते हैं। कला परमानन्द की अभिव्यक्ति की आधारभूमि है। कला वस्तु या प्रतीक नहीं बल्कि अनुकृति और आत्माभिव्यंजन है। परम सत्य की अनुकृति की विशिष्टतम संज्ञा * विभागाध्यक्ष, प्राकृत एवं जैनागम विभाग, सं०सं०वि०वि० वाराणसी।
SR No.525062
Book TitleSramana 2007 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2007
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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