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श्रमण, वर्ष ५८, अंक ४/अक्टूबर-दिसम्बर २००७
मध्यकालीन देव-प्रतिमाओं एवं उनके लक्षणों में सामाजिक चिन्तन, आस्था और समाज के अन्तर्सम्बन्धों की सशक्त अभिव्यक्ति हुई है। इसी कारण सम्प्रदायभाव से आच्छादित प्रतिकूल धार्मिक-सामाजिक परिस्थितियों में मध्यकाल में प्रभूतसंख्या में धार्मिक सामंजस्य और समरसता दर्शाने वाली संघात मूर्तियों का उत्कीर्णन हुआ। ऐसे स्वरूपों में अर्धनारीश्वर, हरिहर, हरिहर-हिरण्यगर्भ और हरिहर-पितामह मूर्तियों की प्रधानता रही है। साथ ही कुछ नूतन स्वरूपों की अवधारणा भी दिखाई देती है जिनमें रूद्रभास्कर, सूर्यनारायण, हरिहर-सूर्यबुद्ध, सूर्यलोकेश्वर, शिवलोकेश्वर, विष्णुलोकेश्वर, ब्रह्मा-विष्णु एवं सूर्यनारायण ब्रह्म मुख्य हैं।
__ मध्यकालीन देव-मूर्तियों के अध्ययन में विभिन्न क्षेत्रीय तत्त्वों का ध्यान रखना नितान्त आवश्यक है। किसी परम्परा की कुछ क्षेत्रों में मान्यता और कुछ में अस्वीकृति के अपने कारण और आग्रह रहे हैं, जिसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण दक्षिण भारत में सूर्य की मूर्तियों में उदीच्यवेश, यानी उपानह, वर्म और अव्यंग का न दिखाया जाना है, जो परम्परा के प्रति उनकी प्रतिबद्धता दर्शाती हैं। इसी प्रकार उत्तर भारत में कुषाणकाल से मध्यकाल तक तीर्थंकर मूर्तियों में अनिवार्य रूप से वक्षःस्थल में उत्कीर्ण 'श्रीवत्स' चिह्न दक्षिण भारत की तीर्थंकर मूर्तियों में अनुपलब्ध है। इसका कारण दक्षिण भारत में बुद्ध मूर्तियों की अनुपलब्धता के परिप्रेक्ष्य में बुद्ध और तीर्थंकर मूर्तियों में भेदपरक चिह्न के रूप में श्रीवत्स' चिह्न की अनावश्यकता थी।
शिल्पशास्त्रीय परम्परा से निर्दिष्ट देवस्वरूपों के साथ ही विभिन्न क्षेत्रों में विरल स्वरूपों वाली देव-मूर्तियाँ भी अधिक संख्या में बनी, जो स्थानीय परम्पराओं या शिल्पी और धर्माचार्यों के चिन्तन का परिणाम और तत्कालीन सामाजिक आवश्यकता का प्रतिफल थी। मोढेरा के सूर्य मन्दिर में त्रिपाद, त्रिहस्त और त्रिमुख देवता की स्थानक मूर्ति तथा द्वादश गौरी एवं शीतला की मूर्तियाँ, भुवनेश्वर में अजएकपाद शिव की मूर्ति, हिमाचल प्रदेश से अर्धनारीश्वर मूर्ति के तर्ज पर लक्ष्मी-विष्णु की अद्वय मूर्ति की कल्पना, खजुराहो में सिंहवाहनी लक्ष्मी, वैकुण्ठ विष्णु, षण्मुख और चतुष्पाद सदाशिव मूर्तियाँ, मध्य प्रदेश और गुजरात से प्राप्त तपस्विनी पार्वती (रानी पाटण की मूर्ति में पार्वती कौपीन एवं योगपट्टधारिणी भी हैं।) की मूर्तियाँ, होयसल मन्दिरों पर नृत्यरत सरस्वती एवं तपस्विनी पार्वती की मूर्तियाँ, चोल मन्दिरों पर त्रिभुजी अर्द्धनारीश्वर तथा तंजौर के बृहदीश्वर मन्दिर की हरिहर-पितामह की विलक्षण मूर्तियाँ, तालागाँव की महाप्रमाण शिवमूर्ति, देवगढ़ एवं खजुराहो की तीर्थंकर मूर्तियों के लक्षणों से लक्षित बाहुबली एवं भरत की मूर्तियाँ तथा सरस्वती सहित त्रितीर्थी जिनमूर्ति, खजुराहो के आदिनाथ जैन मन्दिर (११वीं शती ई०) की रथिकाओं की सोलह जैन महाविद्या मूर्तियाँ, राजगिर के सोनभण्डार गुफा में सुपार्श्वनाथ और पार्श्वनाथ के साथ महावीर