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मध्यकालीन भारतीय प्रतिमालक्षण
मध्यकालीन देव - मूर्तियों में मूलनायक या प्रधान देवता की तुलना में पार्श्व या परिवार देवताओं एवं दूसरे धर्म के देवी-देवताओं को सामान्यतः प्रधान देवता से आकार में छोटा दिखाया गया है, जो तत्कालीन सोच से निर्दिष्ट रहा है। फलतः उन मूर्तियों से विभिन्न देवताओं के पारस्परिक तालमेल और उनकी तुलनात्मक प्रतिष्ठा का भी संकेत मिलता है। वास्तव में विभिन्न क्षेत्रों की मध्यकालीन प्रतिमाओं में प्रधान देवता और पार्श्व देवताओं के स्वरूप और आकार का तुलनात्मक और विस्तृत अवगाहन सामाजिक धार्मिक परिप्रेक्ष्य में महत्त्वपूर्ण निष्कर्षों की सम्भावना की दृष्टि से एक पृथक् अध्ययन का विषय है।
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मध्यकालीन देव - मूर्तियाँ अधिकांशतः मन्दिरों के विभिन्न भागों पर उत्कीर्ण हैं। इनके निर्माण में शासकों की मुख्य भूमिका रही है। शासकों के अतिरिक्त व्यापारियों, व्यवसायियों, सामन्तों, मन्त्रियों और यहाँ तक कि सामान्यजनों ने भी मन्दिरों और मूर्तियों का निर्माण करवाया। धर्म के प्रति मनुष्य की सहज आस्था और जन्म से मृत्यु तक विभिन्न संस्कारों, आश्रमों एवं अन्य रूपों में जीवन से अविच्छिन्न रूप में धर्म का जुड़ा होना तथा भक्ति और पुरुषार्थ की प्राप्ति के निमित्त मन्दिरों एवं मूर्तियों के निर्माण की आवश्यकता, धार्मिक क्रियाकलाप का एक आवश्यक और अनिवार्य अंग था। इसी कारण मध्यकाल में राजनीतिक दृष्टि से क्षेत्रीय राजनीतिक शक्तियों एवं संस्कृति के क्षेत्रीय तत्त्वों की प्रधानता के बाद भी मन्दिरों और मूर्तियों के निर्माण का कार्य पूर्व की अपेक्षा अधिक विशाल पैमाने पर हुआ जिसका प्रमाण १०वीं से १३वीं शती ई० के मध्य के श्रेष्ठतम और विशालतम मन्दिर तथा उन पर उकेरी असंख्य देव मूर्तियाँ हैं। इन मूर्तियों में जीवन का स्पन्दन भी है और आध्यात्मिक स्तर पर ईश्वर की साधना और उसे स्पर्श करने, पूजने तथा स्वयं को पूरी तरह समर्पित कर आराध्य देव जैसा बनने की चाह भी है। यही कारण है कि चाहे हम खजुराहो के लक्ष्मण, पार्श्वनाथ, विश्वनाथ या कन्दरिया महादेव, मोढेरा के सूर्य, भुवनेश्वर के लिंगराज या राजा-रानी, कोणार्क के सूर्य, तंजौर और गगैकोण्डचोलपुरम् के बृहदीश्वर, हलेबिड और बेलूर के होयसलेश्वर और चन्नेकेशव या देलवाड़ा और कुम्भारिया के जैन मन्दिरों समक्ष हों, हमें एक जैसी अनुभूति होती है।
खजुराहो के पार्श्वनाथ जैन मन्दिर (लगभग ९५० - ७० ई०) की भित्तियों पर तीर्थंकरों और अम्बिका यक्षी के साथ ही विष्णु, शिव, ब्रह्मा, राम, बलराम और काम
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की स्वतन्त्र एवं शक्तिसहित आलिंगन मूर्तियों का भी उकेरन हुआ है, जो इस स्थल पर धार्मिक सामंजस्य और सौहार्द का प्रमाण है। इसी प्रकार ओसिया (सूर्य मन्दिर), खजुराहो (विश्वनाथ एवं कन्दरिया महादेव मन्दिर) तथा भुवनेश्वर (मुक्तेश्वर मन्दिर) के ब्राह्मण मन्दिरों पर जैन तीर्थंकरों की मूर्तियों का उत्कीर्णन भी महत्त्वपूर्ण है। वस्तुतः