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श्रमण, वर्ष ५८, अंक ४/अक्टूबर-दिसम्बर २००७
शून्यता, उपादाय-प्रज्ञप्ति, मध्यमा प्रतिपत् आदि संज्ञाएँ हैं। 'माध्यमिककारिका' में नागार्जुन कहते हैं :
य: प्रतीत्यसमुत्पादः शून्यता तां प्रचक्षते। सा प्रज्ञप्तिरुपादाय प्रतिपत्सैव मध्यमा।।
इस कारिका का आशय यह है कि नागार्जुन प्रतीत्यसमुत्पाद के विकसित रूप को शून्यवाद के नाम से अभिहित करते हैं। उनके अनुसार यह प्रतीत्यसमुत्पाद ही 'शून्यवाद' है और यही 'माध्यमिक-मत' भी कहा जाता है, जो बौद्ध दर्शन का महत्त्वपूर्ण अंग है। सन्दर्भ :
१. माध्यमिक कारिका, २४.१८ २. बोधिचर्यावतार, पृ० ३५४ ३. माध्यमिक कारिका, १८.७
४. वही, २४.१०
५. श्रीमद्भगवद्गीता, ६.४६ ६. विशेष द्र० : आचार्य नरेन्द्रदेव, बौद्ध धर्म-दर्शन ७. माध्यमिक कारिका, २४.१८