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श्रमण, वर्ष ५८, अंक २-३ / अप्रैल-सितम्बर २००७
ज्ञान की ये सात भूमिकाएँ विवेकी पुरुषों को ही प्राप्त होती हैं। जो इन भूमिकाओं में पहुँचकर उत्तरोत्तर उत्कृष्ट स्थानों पर विजय पाते जाते हैं, वे महात्मा निश्चय ही वन्दनीय हैं।
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इस प्रकार से योगवासिष्ठ और जैन परम्परा में आध्यात्मिक विकास की ये अवस्थाएँ हैं जिनमें सात आध्यात्मिक विकास की अवस्था और सात आध्यात्मिक पतन की अवस्था है। यदि विचारपूर्वक देखा जाय तो जैन परम्परा के गुणस्थानसिद्धान्त में भी आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से विकास का सच्चा स्वरूप अप्रमत्त चेतना के रूप में सातवें स्थान से प्रारम्भ होता है। इस प्रकार जैन परम्परा में भी चौदह गुणस्थानों में सात अवस्थाएं आध्यात्मिक विकास की और सात अवस्थाएं आध्यात्मिक अविकास की हैं। २° योगवासिष्ठ की उपर्युक्त मान्यता की जैन परम्परा से कितनी निकटता है इसका निर्देश पं० सुखलाल जी ने भी किया है २२ - 'योगवासिष्ठ एवं जैन परम्परा में आचरणात्मक पक्ष पर विशेष बल दिया गया है। जैन दर्शन के तीन रत्न है - सम्यक् - दर्शन, सम्यक् - ज्ञान और सम्यक् चारित्र । जब तक हम ज्ञान को अपने आचरण में नहीं लाएगें तब तक हम मोक्ष की ओर अग्रसर नहीं होंगे। ज्ञानात्मक पक्ष के सम्यक होने के साथ-साथ उसका आचरण पक्ष भी सम्यक् होना चाहिए। इसी प्रकार योगवासिष्ठ का भी ज्ञान और कर्म के सम्बन्ध में विचार है। इस ग्रंथ में ज्ञान और कर्म में समन्वय स्थापित किया गया है। २२ जो ज्ञान आचरण या व्यवहार में न हो उस ज्ञान का कोई अर्थ नहीं है। इस ग्रंथ ने तो यहाँ तक कहा है कि जो ज्ञानी ज्ञान के अनुरूप आचरण नहीं करते अर्थात् जिनकी कथनी और करनी में अंतर है, वे ज्ञानी नहीं ज्ञानबन्धु हैं और उनसे अच्छा अज्ञानी है। कहने का तात्पर्य यह है ये दोनों ही आचरण पक्ष को महत्त्वपूर्ण मानते हैं। हम अपने लक्ष्य अर्थात् मोक्ष को भी प्राप्त कर सकते हैं जब ज्ञान को अपने आचरण में समाविष्ट करें। वर्तमान समस्याओं के मूल में हमारे इस आचारण पक्ष का असम्यक् होना है। हम यथार्थ को जानते हैं ही, क्या सही है, क्या गलत है, इसे भी जानते हैं लेकिन उसे आचरण में चरितार्थ नहीं कर पाते। अतः हम ज्ञानात्मक पक्ष के साथ-साथ आचरणात्मक पक्ष को भी सम्यक् करके आध्यात्मिक पथ के पथिक बनकर अपने लक्ष्य की ओर उत्तरोत्तर अग्रसर हो सकते हैं।
संदर्भ :
१. तत्त्वार्थसूत्र, सर्वार्थसिद्धि टीका ( पूज्यपाद), ८ / १.
२. मिच्छतं वेदंतो जीवो विवरीयदंसणो होदि ।
गोम्मटसर ( जीवकाण्ड), अजित आश्रम, लखनऊ,
धम्मं रोचेदि हु, महुरं खु रसं जहा जरिदो । १ / १७, जे ०. ० एल० जैन, दी सेन्ट्रल जैन पब्लिशिंग हाउस,
१९२७.