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________________ जैन दर्शन एवं योगवासिष्ठ में ज्ञान की क्रमागत अवस्थाओं : ९१ भस्म हो गये हैं, उस महापुरुष को ज्ञानीजन भी पंडित कहते हैं । १७ श्री भरत जी इस पाँचवी भूमिका में स्थित माने जा सकते हैं। ६. पदार्थाभावनी - पाँचवीं भूमिका के पश्चात् जब वह ब्रह्मप्राप्त पुरुष छठी भूमिका में प्रवेश करता है, तब उसकी नित्य समाधि रहती है। इसके कारण उसके द्वारा कोई भी क्रिया नहीं होती। उसके अन्तःकरण में शरीर और संसार के सम्पूर्ण पदार्थों का अत्यन्त अभाव- सा हो जाता है। उसे संसार का और शरीर के बाहर-भीतर का बिल्कुल ज्ञान नहीं रहता, केवल श्वास आते-जाते हैं। इसलिये इस भूमिका को पदार्थाभावनी कहते हैं।१८ जैसे गाढ़ सुषुप्ति में स्थित पुरुष को बाहर-भीतर के पदार्थों का ज्ञान बिल्कुल नहीं रहता है, वैसे ही इसको भी ज्ञान नहीं रहता है। अतः उस पुरुष की इस अवस्था को 'गाढ़ सुषुप्ति अवस्था' भी कहा जा सकता है। किन्तु गाढ़ सुषुप्ति में स्थित पुरुष अज्ञान के कारण माया में विलिन हो जाता है। अतः उसकी स्थिति तमोगुणमयी है, पर इस ज्ञानी महापुरुष का मन- - बुद्धि ब्रह्म में तद्रूप हो जाता है। अतः इसकी अवस्था गुणातीत है। इसलिए यह गाढ़ सुषुप्ति से अत्यन्त विलक्षण है। गाढ़ सुषुप्ति में स्थित पुरुष तो निद्रा के परिपक्व हो जाने पर स्वतः ही जग जाता है। किन्तु इस समाधिस्थ ज्ञानी महात्मा पुरुष की व्युत्थानावस्था तो दूसरों के बारम्बार प्रयत्न करने पर ही होती है, अपने-आप नहीं । उस व्युत्थानावस्था में वह जिज्ञासु के प्रश्न करने पर पूर्व के अभ्यास के कारण ब्रह्म विषयक तत्त्व - रहस्य को बता सकता है। इसी कारण ऐसे पुरुष को 'ब्रह्मविद्वरीयान् ' कहते हैं। ७. तुर्यगा- छठी भूमिका के पश्चात् सातवीं भूमिका स्वतः ही हो जाती है। उस ब्रह्मवेत्ता ज्ञानी महात्मा पुरुष के हृदय में संसार का और शरीर के बाहर-भीतर के लौकिक ज्ञान का अत्यन्त अभाव हो जाता है। क्योंकि उसका मन और बुद्धि ब्रह्म तद्रूप हो जाता है, इस कारण उसकी व्युत्थानावस्था तो न स्वतः होती है और न दूसरों के द्वारा प्रयत्न किये जाने पर ही होती है। जैसे मुर्दा जगाने पर भी नहीं जाग सकता, वैसे ही यह मुर्दे की भाँति हो जाता है। अंतर इतना ही रहता है कि मुर्दे में प्राण नहीं रहता और इसमें प्राण रहता है तथा यह श्वास लेता रहता है। ऐसे पुरुष का संसार में जीवन-निर्वाह दूसरे लोगों के द्वारा केवल उसके प्रारब्ध के संस्कारों के कारण ही होता रहता है। वह प्रकृति और उसके कार्य सत्त्व, रज, तम तीनों गुणों से और जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति- तीनों अवस्थाओं से अतीत होकर ब्रह्म में विलिन रहता है, इसलिये उसके अन्तःकरण की अवस्था 'तुर्यगा' भूमिका कहलाती है । १९ यह तुर्यगावस्था जीवन्मुक्त पुरुषों में इस शरीर के रहते हुए ही विद्यमान रहती है । इस देह का अन्त होने पर विदेह मुक्ति का विषय साक्षात् तुर्यातीत ब्रह्म ही है।
SR No.525061
Book TitleSramana 2007 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2007
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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