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________________ ९० : श्रमण, वर्ष ५८, अंक २-३/अप्रैल-सितम्बर २००७ तीनों अवस्थाओं से शोधित, सबके आधार सन्मात्ररूप आत्मा में दूध में जल के समान ज्ञान, ज्ञाता, ज्ञेयभाव के विनाश से साक्षात्कारपर्यन्त निर्विकल्पक समाधिरूप स्थिति सत्त्वापति है।१२ इस भूमिका में मन परमात्मसत्त्वरूप में स्थित होने से जीव ब्रह्मवित् कहलाता है। इसी को 'गीता' में निर्वाण/ब्रह्म की प्राप्ति कहा गया है - जो अन्त:करण में सुख का अनुभव करता है, जो कर्मठ है और अन्त:करण में ही रमण करता है तथा जिसका लक्ष्य अन्तर्मुख होता है वह सचमुच पूर्ण योगी है। वह परब्रह्म में मुक्ति पाता है और अन्ततोगत्वा ब्रह्म को प्राप्त होता है।१३।। ___जिस प्रकार सारी नदियाँ बहती हुई अपने नाम-रूप को छोड़कर समुद्र में विलिन हो जाती हैं, उसी प्रकार ज्ञानी महात्मा नामरूप से रहित होकर परम दिव्य पुरुष परात्पर परमात्मा को प्राप्त हो जाते हैं, उसी में विलीन हो जाते हैं।१४ जब साधक को परब्रह्म का यथार्थ ज्ञान हो जाता है, तब वह ब्रह्म ही हो जाता है - ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति। (मुण्डकोपनिषद् ३/२/९) - इस चौथी अवस्था में पहुँचे हुए पुरुष को ब्रह्मवित् - ब्रह्मवेत्ता कहा जाता है और वह लौटकर नहीं आता। इसमें वह ज्ञानी महात्मा के अन्त:करण में स्वप्नवत् भासित होता है, इसलिये यह उसके अन्तःकरण की 'स्वप्नावस्था' मानी जाती है। श्री याज्ञवक्ल्यजी, राजा अश्वपति और जनक आदि इस भूमिका में पहुंचे हुए माने गये हैं। ५. असंसक्ति - जब पूर्वोक्त चारों के सिद्ध हो जाने के कारण सांसारिक विषयों के प्रति असंसक्ति होने पर सत्ता के प्रकाश में मन स्थिर हो जाए तब उसे असंसक्ति कहते हैं। बाह्याभ्यन्तर सभी विषय-संस्कारों से अत्यन्त असम्बन्ध रूप समाधिपरिपाक से चित्त में निरतिशयानन्द, नित्यापरोक्ष, ब्रह्मात्मभावसाक्षात्कार रूप चमत्कार उत्पन्न होने से ऐसी पाँचवी ज्ञानभूमि असंसक्ति नाम से जानी जाती है।१५ ___ परम वैराग्य और परम उपरति के कारण उस ब्रह्म-प्राप्त ज्ञानी महात्मा का इस संसार और शरीर से अत्यन्त सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है। ऐसे पुरुष का संसार से कोई भी प्रयोजन नहीं रहता। वह कर्म करने या न करने के लिये बाध्य नहीं है। 'गीता' में भगवान ने कहा है - स्वरूपसिद्ध व्यक्ति के लिए न तो अपने नियत कर्मों को करने की आवश्यकता रह जाती है और न ऐसा कर्म न करने का कोई कारण ही रहता है। उसे किसी अन्य जीव पर निर्भर रहने की आवश्यकता भी नहीं रह जाती है। फिर भी उस ज्ञानी महात्मा पुरुष के सम्पूर्ण कर्म शास्त्रसम्मत और कामना एवं संकल्प से शून्य होते हैं। इस प्रकार जिसके समस्त कर्म ज्ञानरूप अग्नि के द्वारा
SR No.525061
Book TitleSramana 2007 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2007
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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